लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन 2019 - प्रविष्टि क्रमांक - 353 व 354 // ज्ञानदेव मुकेश

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प्रविष्टि क्रमांक - 353 ज्ञानदेव मुकेश (1) अपरिचय शाम का समय था। मैं घर पर था। तभी कॉल बेल बजी। मैंने दरवाजा खोला। सामने एक लड़का हाथ में का...

प्रविष्टि क्रमांक - 353


ज्ञानदेव मुकेश


(1) अपरिचय

शाम का समय था। मैं घर पर था। तभी कॉल बेल बजी। मैंने दरवाजा खोला। सामने एक लड़का हाथ में कार्ड लिए खड़ा था। उसने कार्ड मेरी तरफ बढ़ाया और कहा, ‘‘मैं फ्लैट नंबर 502 से आया हूं। मेरे साहब के बेटे का कल शाम होटल पनास में बर्थ डे पार्टी है। साहब ने कहा है, जरूर आईएगा।’’

मैंने कार्ड लेकर दरवाजा बंद किया। मैंने पत्नी को कार्ड देते हुए कहा, ‘‘हम उन्हें जानते नहीं है। पहले से कोई परिचय नहीं है। क्या पार्टी में जाना ठीक रहेगा ?’’

हमारे फ्लैट के सामने मि0 शर्मा रहते थे। मेरी पत्नी उनकी पत्नी से परिचित थी। मेरे पत्नी उनके पास गई। उन्होंने कहा, ‘‘इस तरह की पार्टी में हम सभी जाते हैं। आपलोग भी चलिए।’’

पत्नी ने आकर यह बात बतलाई। मैंने कहा, ‘‘ठीक है। चलो चलते हैं पार्टी में।’’

हमलोग अगले दिन गिफ्ट लेकर होटल पनाश पहुंच गए। होटल के एक बड़े हॉल में बर्थ डे पार्टी का आयोजन किया हुआ था। तीन सौ से ज्यादा लोग आए हुए थे। स्टेज को काफी सुरुचिपूर्ण तरीके से सजाया गया था। ढेर सारी लाइटें जगमगा रहीं थीं। स्टेज पर कई बच्चे-बच्चियां हल्के-फुलके तरीके से नाच रहे थे। उन्हीं में एक लड़का काफी सजा-संवरा था। हम समझ गए, यही बर्थ डे ब्वाय है। हम स्टेज पर गए, उसे बर्थ डे विश किया और गिफ्ट देकर वापस अपने स्थान पर आ गए। हम उनके माता-पिता से भी मिलना चाह रहे थे। मगर उन्हें हम पहचान नहीं पा रहे थे। हॉल में हमारे लिए सभी अपरिचित थे। उनसे बच्चे के माता-पिता के बारे में पूछना ठीक नहीं लग रहा था।

तभी स्टेज पर एक बड़ा-सा केक आया। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बीच बर्थ डे ब्वाय ने केक काटा। कई कैमरे चमके और बर्थ डे गीत बजने लगा।

इधर खाने के स्टॉल भी तैयार थे। इससे पहले कि भीड़ बढ़े, हम स्टॉल की तरफ बढ़ गए। खाना बेहद स्वादिष्ट बना था। हमने झककर हर चीज खायी। खाकर बड़ा मजा आया और आत्मा तक तृप्त हो गई। अब हम लौटने की सोचने लगे। लेकिन मन में एक कसक-सी हो रही थी। मैंने पत्नी से कहा, ‘‘बच्चे के माता-पिता से भेंट हो जाती और थोड़ा परिचय हो जाता तो बड़ा सही रहता।’’

पत्नी ने कहा, ‘‘उन्हें अब भीड़ में कहां खोजोगे ओर कैसे पहचानोगे। मैंने गिफ्ट पर अपना नाम और फ्लैट नंबर लिख ही दिया है। वे गिफ्ट देखकर समझ ही जाएंगे कि फ्लैट नंबर 301 वाले आए थे।’’

इस बात से मुझे थोड़ी तसल्ली हुई। हम हॉल से बाहर निकल आए और कार में बैठकर घर लौट गए।

अगले दिन की घटना है। मैं लिफ्ट से बाहर निकल रहा था। तभी एक सज्जन लिफ्ट तक आते दिखे। वे मेरे निकट आए। बेहद ऑपचारिक तरीके से ‘हेलो-हाय’ हुआ। उन्होंने मुझे गौर से देखा और कहा, ‘‘आपको कल पार्टी में नहीं देखा।’’

मैंने कहा, ‘‘मैं तो कल पार्टी में गया था। खूब इन्जवाय किया। वैसे आप कौन ?’’

वे हंसने लगे। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे नहीं पहचाना ? मैं बर्थ डे ब्वाय का पिता।’’

मैं शर्म से गड़ने लगा। मैंने कहा, ‘‘सॉरी ! मैं आपको पहचान नहीं पाया। पहले कभी परिचय नहीं हुआ था न !’’

उन्होंने हाथ मिलाया और कहा, ‘‘कोई बात नहीं। ग्लैड टू मीट यू’।’’

हम दोनों कुछ देर हाथ मिलाते रहे और ओढ़ी हुई मुस्कुराहट छोड़ते रहे। तभी उन्होंने हाथ छुड़ाया और लिफ्ट की तरफ बढ़ गए। मैं भी आगे बढ़ गया।

तभी मुझे खयाल आया, ‘अरे ! मैंने तो उनका नाम पूछा ही नहीं। और यह देखो, उन्होंने भी मेरा नाम नहीं पूछा। यह भला कैसा परिचय हुआ ?’’

मैं रुका और तेजी से पीछे मुड़ा। मगर मैंने देखा वे पल भर में ओझल हो गए थे। लिफ्ट ऊपर जा चुकी थी।

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प्रविष्टि क्रमांक - 354

ज्ञानदेव मुकेश

(2) सुख का स्त्रोत

हमारे आफिस में राजेश नाम का एक वकील आया करता था। वह बड़ा विनम्र और मिलनसार था। एक बार उसके छोटे भाई ने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा पास की। इस सफलता पर राजेश बड़ा खुश हुआ और गर्व से फूला न समाया। अगले ही दिन वह प्लास्टिक के कई पारदर्शी मर्तबान में रसगुल्ले भरकर आफिस ले आया। उसने आफिस के सभी अफसरों को एक-एक मर्तबान खुशी की अभिव्यक्ति के रूप में दिया। मीठे रस में डूबे हुए सफेद रसगुल्लों का एक मर्तबान मुझे भी मिला। मैं उसे अपने कमरे में ले आया और साइड रैक के ऊपर रख दिया।

इसी बीच बड़े साहब का बुलावा आया। मैं फौरन उनके पास गया। थोड़ी देर बाद मैं कमरे में वापस आया। मेरी दृष्टि रसगुल्ले के मर्तबान पर गई। मुझे लगा, रसगुल्ले दो-चार अदद कम हो गए हैं। मुझे अचरज हुआ, भला ऐसा कैसे हो सकता है। फिर मैंने अपना गर्दन झटका और खुद से कहा, ‘नहीं, यह मेरा भ्रम है।’

थोड़ी देर बाद मुझे वाशरूम जाने की तलब हुई। मैं वाशरूम गया। मैं वहां से पांच मिनट बाद लौटा। एक बार फिर मेरी नजर मर्तबान पर गई। मैं धक् सा रह गया। मुझे लगा, तीन-चार रसगुल्ले फिर गायब हो गए हैं। मैं समझ नहीं पाया कि आखिर माजरा क्या है। खैर, मैंने इस परिघटना से ध्यान हटाया और अपने काम में तल्लीन हो गया।

कुछ देर बाद मेरी पत्नी का फोन आया। नेटवर्क की कृपा से उसकी आवाज टुकड़ों में आ रही थी। मैं कमरे से निकल कर बाहर बरामदे में आ गया। बाहर आकर पत्नी की खंडित आवाज मुकम्मल हो गई। उनसे थोडी देर बात हुई और मैं कमरे में वापस आया।

अरे यह क्या ? रसगुल्ले फिर तीन-चार अदद कम हो गए थे। मेरा माथा घूम गया। कमरे में लौटते वक्त मैंने बाहर खड़े चपरासियों के मुख पर दबी हुई मुसकुराहट देखा थी। मैं सबकुछ समझ गया।

मैंने घंटी बजाई और सभी चपरासियों को अंदर बुलाया। मैंने एक चपरासी को बाहर भेजकर एक प्लेट मंगवाया और शेष बचे सभी रसगुल्ले उसमें उलट दिए। मैंने वह प्लेट चपरासियों के आगे बढ़ाया और कहा, ‘‘आप सभी रसगुल्ले दिल खोलकर खाएं। मैं आपके चेहरों पर पूरी खुली हुई खुशी और तृप्ति देखना चाहता हूं।’’

वे सभी शर्म से गड़ने लगे। मैंने कहा, ‘‘संकोच न करें और दिल खोलकर खाएं और मजा लें।’’

मेरे बहुत दबाव डालने पर वे नजरें झुकाए-झुकाए रसगुल्ले खाने लगे। जल्दी ही सारे रसगुल्ले खत्म हो गए।

अब मैंने कहा, ‘‘आप सभी रसगुल्लों का आधा-अधूरा मजा ले रहे थे। अब पूरा मजा आया ?’’

कुछ पल के सभी में चुप्पी छाई रही। फिर एक चपरासी ने कहा, ‘‘सर, सच्ची बात बताऊं ?’’

मैंने कहा, ‘‘हां, हां। खुलकर बताओ।’’

उसने कहा, ‘‘सर, आपने प्लेट में रसगुल्ले खिलाए तो अच्छा लगा। मगर चुरा-चुरा कर खाने में जो मजा आ रहा था, उसकी तो बात ही कुछ और थी। उसका आनन्द अतुल्य था।’’

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-ज्ञानदेव मुकेश

पता-

फ्लैट संख्या-301, साई हॉरमनी अपार्टमेन्ट,

अल्पना मार्केट के पास,

न्यू पाटलिपुत्र कॉलोनी,

पटना-800013 (बिहार)

म.उंपस ंककतमे . हलंदकमअंउ/तमकपिउंपसण्बवउ

डवइपसम दवण् 0्9470200491

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रचनाकार: लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन 2019 - प्रविष्टि क्रमांक - 353 व 354 // ज्ञानदेव मुकेश
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