[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित - खंड पांच

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[मारवाड़ का हिंदी नाटक]

यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है।

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लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित

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यह चांडाल-चौकड़ी, बड़ी अलाम है” का खंड ५

“मोहन प्यारे, रह गया भूखा।”

लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

[मंच रोशन होता है, इस वक़्त दिन के दो बजे हैं। खारची डिपो का दफ़्तर दिखायी देता है। हाम्पते-हाम्पते मोहनजी दफ़्तर में दाखिल होते दिखायी दे रहे है। अब वे अपनी सीट पर बैठते हैं, फिर मेज़ पर बैग और टिफ़िन रखकर वे विचारमग्न हो जाते हैं। इस वक़्त वे, होंठों में ही कहते जा रहे हैं।]

मोहनजी – [होंठों में ही] – कहते हैं, तो भागवान कहा हुआ काम करती नहीं। आज नहीं कहा, तो खीच बनाकर उसमें बहा दिये घी के रेले। ओ रामसा पीर, कैसी औरत से मेरी शादी हो गयी ? अब इस फूटी हुई हंडिया को, क्या कहूं ? कल कहा था मैंने, के ‘गीगला की बाई, आज खीच बना दो...खाने की, बहुत इच्छा हो रही है।’ तब, क्या कहा ? के ‘मेरे घुटनों में दर्द है, अब मेरी ऐसी स्थिति में आपको खाने के लिए चाहिए खीच ? भोले मत बनो, गीगले के बापू। ज़्यादा हुक्म चलाया मुझ पर, तो चली जाऊंगी अपने पीहर। अभी पूरी उम्र पड़ी है, आपके सामने..! मैं तो हूं समझदार, जिसने अभी तक आपको बर्दाश्त किया..अगर मेरी जगह कोई दूसरी औरत होती, तो अभी तक कभी छोड़कर चली जाती आपको।’ अब क्या देखूं, इनमें ? ऐसे कौनसे गुण है, इनमें ? आज़ सुबह बनाया खीच, और उसमें बहाये घी के रेले। खीच खाने की, बिल्कुल इच्छा नहीं थी। मगर, जबरदस्ती खाना पड़ा मुझे। अब इस खीच के कारण, लगती है, बार-बार प्यास।

[बैग से पानी की बोतल निकालते हैं, मगर बदक़िस्मत से वह भी ख़ाली निकली। अब मोहनजी, वाचमेन चम्पले को पुकारते हैं..]

मोहनजी – [आवाज़ देते हुए] – अरे ए रे, चम्पला कढ़ी खायोड़ा। कहाँ चला गया रे ? इधर आ तो सही, चम्पला..

[मगर चम्पले को कहाँ सुनायी देता है ? वह तो भय्या, धान की बोरियों पर आराम से बैठा है और बना रहा है प्लानिंग छुट्टी लेने की। वह होंठों में ही, कहता जा रहा है।]

चम्पला – [होंठों में ही] – इन औरतों की बुरी आदत है, बुई-बुई झकल करते “तेरी-मेरी” का निंदा पुराण बांचने बैठ जाना। इसके अलावा, है क्या ? दो औरतें इकट्ठी हो जाये, तब करने लगती है ‘घूटर-गूं घूटर-गूं।’ मगर मर्द वही होता है, जो ना तो इन औरतों के बीच में बैठता है और न करता है औरतों जैसी तेरी-मेरी। जो करता है, वह होता है एक नंबर का बाईरोंडिया। ओ मेरे रामा पीर, आराम से बैठा था पाली। मगर, करें क्या ? इस भागवान यह कह-कहकर मेरा सर-दर्द अलग से बढ़ा दिया, के ‘खारची में पड़ी है ख़ाली पोस्ट, और आप क्यों करते जा रहे हो रोज़ का पाली आना-जाना ? आपके जैसा मूर्ख मुझे इस दुनिया में कहीं दिखायी नहीं देता, या फिर पाली में किसी औरत के साथ आपका ग़लत सम्बन्ध स्थापित हो गया होगा..तो मुझे क्या मालुम ?’ मैं आख़िर, करता क्या ? इस औरत के कारण मुझे, खारची आने के लिए स्वैच्छिक तबादला कराने की अर्जी लिखनी पड़ी। अब पड़ा हूं, खारची..क्या सुख पाया मैंने ? यही अधिकारी जब पाली में मिलता था तब ज़बान से शहद जैसे मीठे शब्द बोलता था के, ‘चम्पले मेरे दिल के टुकड़े, खारची आ जा बेटा। तूझे बहुत आराम से रखूंगा।’ मगर अब..यह गिरगिट की तरह रंग बदलता हुआ, एक ही वाक्य सारे दिन सुनाता रहता है ‘ओय चम्पला कढ़ी खायोड़ा, कहाँ मर गया हरामखोर ?’

[इधर मोहनजी बार-बार घंटी बजाते जा रहे हैं, मगर चम्पले को सुनायी कैसे देता ? वह तो अभी-तक विचारमग्न होकर बोरियों के ऊपर बैठा है। आख़िर हताश होकर मोहनजी उसे भद्दी गालियाँ सुनाते हुए, बोल उठते हैं।]

मोहनजी – [हताश होकर, अब गुस्से में कहते हैं] – हरामखोर हो गया, क्या ? दस मर्तबा बजायी यह घंटी, मगर मरता नहीं इधर ? दो बेटों का बाप हो गया है, मगर अक्ल नहीं तेरे खोपड़े में ? जवाब देते हुए, मां के दीने तेरे मुंह में दर्द होता है क्या ?

[मगर चम्पला आने वाला नहीं, वह वहीँ बैठा-बैठा जवाब दे देता है..]

चम्पला – [वहीँ से] – घंटी आपकी, मर्जी आये उतनी बजाओ..मुझे क्या ? साहब, आपका कोई काम हो तो वहीँ से कह दीजिये। मेरे पांवों में दर्द है, बार-बार मुझसे आया नहीं जाता। अब कौन सुने, आपकी बेफुजूल की बकवास ?  

मोहनजी – [खांसते हुए] – पानी ला रे, चम्पला। गले में अलूज़ आयी है, रे। अब जलन हो रही है, गले में। प्यासा मर रहा हूं, चम्पले। [गला पकड़ते है] मर रहा हूं रे, रामा पीर। मार दिया रे मुझे, इस चम्पले कढ़ी खायोड़े ने। अब कहाँ मर गया रे, मेरे बाप ?

चम्पला – अरे साहब, अपना गला मत पकड़िये। यहाँ बैठकर आप ख़ुदकुशी मत कीजिये, न तो मुझे पुलिस के सामने हाज़िर होना पड़ेगा। मैं तो जनाब बहुत डरता हूं, खारची की पुलिस से। बेतें मार-मारकर, पिछवाड़ा सूजा देती है। ख़ुदकुशी करनी ज़रूरी हो तो साहब, मैं बाहर चला जाता हूं। बाद में आप आराम से, करते रहना ख़ुदकुशी।

[अब क्या ? बेचारे मोहनजी इस बकवादी चम्पले से हो जाते हैं, परेशान। फिर उठकर, लोटा ढूँढ़ने की कोशिश करते हैं। न तो उन्हें दिखायी देता है लोटा, और न दिखायी देता है ग्लास। आख़िर उठाते हैं मटकी का ढक्कन, मगर वहां कहाँ पानी ? अब तो जनाब, पानी तो रह गया आँखों में। आख़िर हारकर, वे चम्पले को वापस आवाज़ देते हैं। और उससे करते हैं, विनती।]

मोहनजी – [हाथ जोड़कर कहते हैं] – पधारो चम्पा लालसा, इधर आकर दर्शन दीजिये। मालिक बोतल में पानी भरकर लाइए, प्यासा मर रहा हूं मेरे बाप। प्यासे आदमी को पानी पिलाना पुण्य का काम होता है, चम्पा लालसा कढ़ी खायोड़ा।

[चम्पला आता है, मोहनजी के पास। फिर चितबंगे आदमी की तरह, बोलता है..]

चम्पला – [नज़दीक आकर कहता है] – क्या कहा, हुज़ूर ? हुज़ूर, सुनायी दिया नहीं। एक मर्तबा, आप वापस कहिये।

मोहनजी – [बोतल थमाते हुए, कहते हैं] – बहरा है, क्या ? यह ले बोतल, और जाकर पानी भरकर ला। गधा, कानों में रुई डाल रखी है...सुनता नहीं, मेरी बात ?

[मोहनजी से बोतल लेकर, चम्पला वाश-बेसीन के नल के नीचे बोतल रखकर पानी भरना चाहता है, मगर वह बोतल कुछ बड़ी है..नीचे आये कैसे ? इधर यह चम्पला तो लाने में देरी करता जा रहा है, उधर मोहनजी की आँखों में आ जाता है पानी। फिर, क्या ? खंखारते हुए मोहनजी, बड़ी मुश्किल से यह कह पाते हैं..के]

मोहनजी – [खांसते हुए, बहुत कठिनाई से बोल पाते हैं] – पागल की तरह, इधर-उधर देखता है ? भंग पीकर आ गया, क्या ? [होंठों में ही] ए रामसा पीर, ऐसा क्यों किया मैंने ? खीच खाया मैंने, देसी घी के बहते रेले को देखकर..मगर, क्यों खाया आखी बड़ियों का साग, जिसमें डाली हुई थी, पतकाली मिर्चें ? अब कंठ जलता है, खांसता जा रहा हूं। और इधर यह नालायक चम्पला, ला नहीं रहा है पानी ?

[आख़िर पानी लाने के लिए, मोहनजी उठने की कोशिश करते हैं। तभी चम्पला पानी लाता हुआ दिखाई देता है, अब वापस बैठ जाते हैं..अपनी सीट पर। उसे बोतल में पानी लाता देखकर, मोहनजी ख़ुश होकर कहते हैं..]

मोहनजी – [ख़ुश होकर] – जीता रह चम्पले, तूने मुझे पानी पिलाया। रामसा पीर करे, अब तूझे भी कोई पानी देवे।

[चम्पले से बोतल लेते हैं, फिर गटा-गट पानी पी जाते हैं। पानी गर्म और खारा होने की वजह से, वे नाराज़ हो जाते हैं। फिर नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए, कहते हैं..]

मोहनजी – चम्पले कढ़ी खायोड़ा, नालायक तूने यह क्या कर डाला ? कमबख्त, मुझे गर्म और खारा पानी पिला दिया तूने..करमठोक।

[चम्पला उनकी बात अनसुनी करके, जाकर बैठ जाता है स्टूल पर। और वापस, विचारों का मंथन करने लग जाता है।]

चम्पला – [होंठों में ही] – परेशान हो गया, इस दफ़्तर में आकर। आराम से बैठा था, पाली में। मर्जी होती तब जाता दफ़्तर, इच्छा होती तो ले लेता रेस्ट..वहां तो रेस्ट भी बहुत मिलती थी। वहां काम भी बहुत कम था, बस जाकर सो जाना और क्या ? यहाँ तो जब कभी ड्यूटी पूरी करके मैं घर पहुंचता हूं, और उधर मुझे देखकर घर वाली को लग जाती है मिर्चें..करें क्या ? जनाब ? पड़ोसन से बातें करती हो, और मैं आ जाता हूं वहां...उनकी चल रही गुफ़्तगू को डिस्टर्ब करने, अब मेरा वहां आना, भागवान को कहां पसंद ? बस गुस्से से काफूर होकर, कहने लगती है के “दफ़्तर छोड़कर, आप घर कैसे चले आये ? भूख लगती तो कहला देते मुझे, टिफ़िन भेज देती आपके दफ़्तर। करते हो हरामखोरी, अफ़सर बेचारे गऊ सरीखे..कुछ कहते नहीं।’ अरे, मेरे रामसा पीर। यह समझती क्यों नहीं, सरकारी नियम-क़ायदे ? के, वाचमेन की ड्यूटी रात को होती है, दिन को नहीं..अब इस भागवान की मूर्खता के कारण, रात दफ़्तर में गुज़ारूं और दिन भी गुज़ारूं दफ़्तर में ? ऊपर से ऐसे मोहनजी जैसे बदतमीज़ अफ़सर, जिनकी सुनते रहें बुई–बुई झकाल [बकवास]। इतना भी नहीं समझते, यह बेचारा तीन दिन से बराबर ड्यूटी निकाल रहा है, मेरी तारीफ़ करनी गयी कुए में..इनको तो मुंह से, मीठे बोल निकालने में आ जाती है मौत। ऊपर से रात को, दफ़्तर फ़ोन करके पूछ लेते हैं, के ‘चम्पला कढ़ी खायोड़ा, नींद तो नहीं ले रहा है दफ़्तर में ?’

[इस तरह चम्पले के जवाब नहीं देने से, मोहनजी से बिना बोले रहा नहीं जाता। वे तो झट बोलने के भोंपू को, फिर स्टार्ट कर देते हैं।]

मोहनजी – चम्पला, कढ़ी खायोड़ा। बोल क्यों नहीं रहा है, मुंह में ज़बान नहीं है क्या ?

[इतना सुनकर चम्पले के दिमाग़ की शान्ति भंग हो जाती है, वह गुस्से में भन्नाता हुआ मोहनजी से कह देता है..]

चम्पला – [गुस्से में कहता है] – आप अधिकारी ज़रूर हैं, मगर अधिकारी के गुण आपमें एक भी नहीं। पानी मंगवाते क्या हो, आप तो पानी लाने वाले का पानी उतार लेते हो ? इतनी उतावली करना, अपनी बेर के पास..

मोहनजी – क्या कहा..?

चम्पला – कह रहा हूं, आपको सरकारी मुलाजिमों से पानी मंगवाना लगता है अमृत जैसा। अगर ऐसा ही है, तो एक बड़ी मटकी लाकर रख दूं आपकी सीट के पास।

[अब मोहनजी देखने लग जाते हैं, प्रवचन देते हुए इस चम्पले का मुंह ? इस मंज़र को देखकर, उनका बोलने का भोंपू हो जाता है बंद। मगर, इस चम्पले को आख़िर हो गया, क्या ? वह नालायक तो, अपने बोलने का भोंपू बंद करता ही नहीं ?]

चम्पला – [ज़ोर से बोलता हुआ] – ऐसा सोचा था मैंने, के आप अच्छे इंसान हैं..मगर आप तो निकले, पूरे पागल। थोड़ा दिमाग़ के ऊपर ज़ोर दिया करो, के ‘अगला आदमी, किस हालत में है ? मटकी के अन्दर पानी नहीं, वाश-बेसीन के नल के नीचे बोतल आती नहीं..आखिर पानी लाया, बाथ रूम के नल से।’

मोहनजी – [ज़ोर से झल्लाते हुए, कहते हैं] – दो बच्चों का बाप बन गया रे, मगर तेरी खोपड़ी में अक्ल नाम की कोई चीज़ नहीं। नालायक कढ़ी खायोड़ा मुझे पिला दिया रे, टोयलेट का गंदा पानी। अरे रामसा पीर। ये सभी खारची के आदमी, मुझे मारने में ख़ुश हैं।

चम्पला – [ज़ोर से चीखता हुआ कहता है] – मेरे पीछे खारची के लोगों को क्यों गालियाँ देते हो ? कहना है तो साहब, मुझे कहिये। टंकी का गर्म पानी पी लिया, तो हो गया क्या ? पेट के कीड़े मर जायेंगे, ऐसा कौनसा नुक्सान हो गया आपका ?  

[चम्पले की चिल्लाने की आवाज़ सुनकर, दफ़्तर के सारे मुलाजिम अपने-अपने कमरों से बाहर निकलकर वहीँ इकट्ठे हो जाते हैं। फिर उस चम्पले से, उसकी तबीयत पूछने लगते हैं..!]

सभी – [एक साथ कहते हैं] – क्या हुआ रे, तूझे ? कहीं दौरा पड़ गया, क्या ?

चम्पला – दौरा पड़े, इन अफ़सरों को। हम गरीबों को, क्यों पड़े ?

मोहनजी – कुछ नहीं, भाइयों। आप अपने-अपने कमरे में चले जाइये, और जाकर दफ़्तर का काम निपटाइए। यहाँ कुछ नहीं हुआ है।

चम्पला – यों कैसे बोलकर, बात को टालते जा रहे हैं, आप ? बात तो झगड़े की ही है, जनाब। इन लोगों को देखकर, आप डरते हुए ऐसे क्यों कह रहे हैं ? मगर सच्च बोलने में, मुझे किसका डर लगता है ?

[एक मुलाजिम नज़दीक आता है, उसका नाम है माता राम। मगर मोहनजी की नज़रों में, उसका नाम माथा खाऊ होना चाहिए। कारण यह है, उसकी बेफुजूल डिसकसन करने की गंदी आदत है..जिसके कारण वह एक बार किसी के कमरे में घुस जाता है, तब वह कमरे में बैठने वालों से डिसकस करना शुरू कर देता है। और कमरे को छोड़कर जाता नहीं, भले उसके लिए चाय, नमकीन व मिठाई वगैरा कुछ भी मंगवा लो..मगर यह आदमी, किसी भी हालत में कमरा छोड़कर जायेगा नहीं। अंत में छुट्टी होने के बाद ही वह, चपरासी को आते देखकर कमरे को छोड़ता है। अब वह नज़दीक आकर, चम्पले से पूछने लगता है।]

माता राम – [नज़दीक आकर, कहता है] – भाई चम्पला, कुछ तो बात हुई होगी ? तब ही शोले भड़के हैं, और आग लगी है।

चम्पला – शोलों को भड़काकर, आग मत लगाओ। मुझे अभी-तक, नौकरी करनी बाकी है। इस आग से धान की बोरियां जल जाया करती है, तब भुगतना पड़ता है हम जैसे वाचमेनों को। आपके जैसे, एलकारों को नहीं।

माता राम – [क्रोधित होकर] – कौन लगा रहा है, आग ? इसे नीच कर्म कौन कर सकता है ? मैं तो यह जानना चाहता हूं, के ‘झगड़े का कारण, आख़िर है क्या ?’

चम्पला – बात तो इतनी सी है, बस इन्होने कहा ‘पानी लेकर आओ’ मैं ठहरा, भोला जीव। क्या जानता पानी कहाँ से लाऊं, और किसलिए इनको पानी चाहिये ? फिर सोचा जनाब, ‘ये गाँव के देसी आदमी हैं, पांव में खालड़े पहनने वाले। निपटने के लिए जा रहे होंगे, जंगल..और इनको बोतल में चाहिए, पानी। इसके अलावा, मैं क्या सोच सकता हूं, जनाब ?

माता राम – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए] - हाँ भाई चम्पला, इन्होने पहले दी तुम्हें खाली बोतल..पानी भरने के लिए। फिर तूने सोचा होगा, ‘इनको जाना है दिशा-मैदान’। अब आगे बता, आगे क्या हुआ ? 

चम्पला – मुझे पानी भरने के लिए दी ख़ाली बोतल, और मैं लेकर आ गया बाथ-रूम की टंकी से गर्म-गर्म पानी। इसमें, मेरा क्या दोष ? [रोवणकाळी आवाज़ में] ज्यादा दुःख दिए तो पेश हो जाऊंगा बड़े साहब के सामने, फिर आप मुझे कोई दोष देना मत..के, मुझे किसी का लिहाज़ नहीं।

माता राम – [हंसते हुए कहते हैं] – अरे, ए लिहाज़ी जीव। सच्च बता, यार। क्या तूने पाख़ाने में पानी भेजने वाली टंकी का पानी, साहब को पिला दिया..? [मोहनजी की तरफ़ देखते हुए] वाह रे, अफ़सरां। इस खारची में बड़े से बड़े तुर्रम खां अफ़सरों को, छूट जाती है दस्तें।

चम्पला – फिर बेचारे साहब, कैसे जायेंगे बार-बार जंगल ? अरे, रामसा पीर। प्रेसर बढ़ गया तो, राम राम इनकी पतलून खराब न हो जाये ?

माता राम – तू फ़िक्र मत कर, चम्पला। [भोला मुंह बनाकर] इनके लिए इस्टेंडिंग पोट लगवा देंगे, इनके कमरे में ही। करें, क्या ? बेचारे, भारी शरीर वाले हैं। खाते रहेंगे, और पाख़ाना जाते रहेंगे। देण मिटी रे, चम्पला...

[इनकी बात सुनकर, मोहनजी को छोड़कर सभी खिल-खिलाकर हंसने लगे। बेचारे हंसते ही जाते हैं, हंसते ही जाते है..तब तक हंसते है, जब तक उनके पेट के बल खुल नहीं जाते। बेचारे मोहनजी इनकी हंसी सुनकर, खून का घूँट पीकर रह जाते हैं। तब वे बैग व टिफ़िन उठाते हुए, कहते हैं..]

मोहनजी – [बैग और टिफ़िन उठाते हुए, कहते हैं] – यह क्या निरर्थक बकवास लेकर बैठ गए, आप ? मुझे जाना है, प्लस पोलियो शिविर में। वहां नर्स बाईसा जुलिट, मेरी प्रतीक्षा कर रही है। अब मैं चलूँ यहाँ से, अन्यथा यह झगड़ा बढ़ता ही जाएगा।

[उनको यों रूख्सत होते देखकर, बड़े बाबू रिखबसा को होने लगती है, फ़िक्र। के, अभी तक साहब ने दफ़्तर की डाक देखी नहीं है। फिर ये जनाब, बाबूओं पर दोष लगा देंगे, के ‘आज़कल ये बाबू लोग बिना पूछे डाक खोल देते हैं, और डाक की भनक अफ़सरों को लगने नहीं देते।’ फिर क्या ? झट डाक लाकर, उनकी मेज़ पर रख देते हैं। फिर, मोहनजी से कहते हैं..]

रिखबसा – [डाक मेज़ पर रखकर, कहते हैं] – साहब, कहाँ जा रहे हो ? अभी तो जनाब, डाक देखनी बाकी है। प्लीज़, डाक पर अपने लघु-हस्ताक्षर कीजिये। फिर आप, बेफिक्र होकर जाइये।

मोहनजी – [सीट से उठते हुए, कहते हैं] – एक बार उठ गए रिखबसा, तो समझ लीजिये उठ गए। रेडियो एक बार बोलता है, दूसरी बार नहीं। इसी तरह मोहनजी सीट से एक बार उठ गए, तो बस उठ गए। वापस बैठने वालों में, मोहनजी नहीं है।

रिखबसा – [उनको रोकते हुए] – अरे जनाब, रुकिये रुकिये। [होंठों में ही] कहते हैं, ‘एक बार उठ गए, तो बस उठ गये..!’ उठ गये क्या ? हमेशा के लिए उठ जाइये जनाब।  [प्रकट में] कोई ज़रुरी डाक हो तो ? कहीं हेड ओफ़िस वाले बड़े साहब, नाराज़ न हो जाये ?

मोहनजी – भाड़ में जाए, हेड ओफ़िस और बड़े साहब..मैं क्यों रुकूं, मुझे उनको लापसी खिलानी है क्या ? अब आप ही डाक खोलिए, जवाब भी आप ही लिखेंगे..बस हम तो जायें अपने काम, सबको राम राम राम।

[इतना कहकर, मोहनजी हो जाते हैं रूख्सत। मंच पर, अँधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, वापस मंच रोशन हो जाता है। खारची रेलवे स्टेशन का मंज़र, सामने दिखायी देता है। स्टेशन के बाहर, एक तरफ़ सफ़ेद कनातों से घेरकर प्लस पोलियो कैम्प की शक्ल दी गयी है। जगह-जगह, प्लस पोलियो कैम्प में बच्चों को लाने के इश्तिहार लगे हुए हैं। कई स्थानों पर लगाए गए सफ़ेद पर्दों पर लिखे गए नारे, आते-जाते लोगों को आकर्षित कर रहे हैं। कैम्प के अन्दर, एक टेबल के चारों ओर कुर्सियां रखी हुई है। इस टेबल पर प्लस पोलियो की दवाएं, रजिस्टर, पेन्सिल, रबड़, कलम वगैरा रखी है। पास ही, चार-पांच मेडिकल बैग रखे हैं। पास रखी बेंच पर, चार अध्यापक नोट-बुक और कलम लिए हुए बैठे हैं। इन अध्यापकों में सुपारी लालसा भी बैठे दिखायी दे रहे हैं। शिविर के बाहर, मर्द और औरतों की अलग-अलग कतारें लगी है। हर मर्द-औरत के बगल में उनका छोटा बच्चा है, जिसे वे पोलियो की दवाई पिलाने यहाँ लाये हैं। अब शिविर के अन्दर जुलिट आती हुई दिखायी देती है। उसके हाथ में, पर्चियां और कलम है। वह आकर, अपनी सीट पर बैठ जाती है। बैठने के बाद, वह अध्यापकों से कहती है..]

जुलिट – देखिये गुरु, यह प्लस-पोलियो का शिविर है। यह एक भलाई का काम है, इस कैम्प द्वारा, हमें बच्चों को लूला-पांगला होने से बचाना है। ध्यान दीजिये, दो जनो को मोहल्ला-मोहल्ला जाना है। हमारी एक मेडिकल वाली बाई आपके साथ साथ रहेगी, वह मदद करेगी दवाई पिलाने में। फिर..

सुपारी लालसा – फिर क्या..?

जुलिट – फिर वापस आकर, आपको अभिलेख तैयार करना है। सारी सूचनाओं से आप वाकिफ़ हैं क्योंकि, बड़े साहब आपको बता चुके है सारी सूचनाएं।

[दो अध्यापक झट उठकर, मेडिकल वाली बाई के साथ जाते हैं। उनके जाने के बाद, बाहर कतार में धक्का-मुक्की होने की आवाजें सुनायी देती है। इस धक्का-मुक्की के साथ-साथ, झगड़ा कर रहे लोगों की आवाजें सुनायी देती है। ऐसा लगता है, कोई किसी को फटकार पिला रहा हो ? कभी ऐसा सुनायी देता है, कोई किसी को सलाह दे रहा हो ? और साथ में कभी, सलाह देते-देते कोई भाषण देने लग गया हो। इन आवाजों के साथ-साथ, कौलाहल बढ़ता जा रहा है।]

एक व्यक्ति – अरे भले मानुष, तू तो हमें पढ़ा-लिखा आदमी लग रहा है, फिर कतार में आने के क़ायदे को कैसे भूल गया ?

दूसरा व्यक्ति – क्यों घुस गया रे बावला, इस कतार में ? क्या हम सुबह से भाड़ झोंकने के लिए, कतार में खड़े हैं ? अब, दूर हट।

तीसरा व्यक्ति – [गुस्से में] – अरे देना रे धक्का, इस बावले को। निकालो इसको कतार से बाहर।

एक औरत – अरे ए रे, नालायक। कैसे घुस गया रे, औरतों की कतार में ?

दूसरी औरत – घर पर, तेरी मां-बहन नहीं है क्या ? [बच्चे की रोने की आवाज़ आती है] कमबख्त, मेरे गीगले को नीचे गिरा दिया ? आ इधर, तूझे चपत मारकर तेरी कमर को सीधी कर दूं।

[तभी मोहनजी, बीच कतार में फंसे हुए दिखाई देते हैं। वे अपने दोनों हाथों से कतार में खड़े लोगों को धक्का देते हुए, आगे बढ़ते जा रहे हैं। इस वक़्त वे धक्का मारते हुए, बीच में खड़े लोगों को कहते जा रहे हैं..]

मोहनजी – [दोनों हाथों से धक्का मारते हुए, कहते हैं] – आने दीजिये..आने दीजिये, आप नहीं जानते हो मुझे नर्स बहनजी से ज़रूरी मिलना है।

दूसरा व्यक्ति – सबको मिलना है, भईसा। जनाब, क्या आप लाड साहब हैं ? जनाब इस तरह से बोल रहे हैं, जैसे कोई अफ़सर हो ?

मोहनजी – सच्च कहा आपने, मैं अफ़सर ही हूं..एफ़.सी.आई. का।

तीसरा व्यक्ति – [हंसता हुआ कहता है] – बड़े आये, अफ़सर बनकर ? लोत्तर होते, तो यहां क्यों आते ? यहाँ तो ख़ाली मेडिकल वाले अफ़सर, चितबंगे की तरह भटकते हैं।

एक औरत – ये साहब, डॉक्टर साहब कैसे हो सकते हैं ? मुझे तो ये किसी भी दशा में, कम्पाउंडर साहब भी नहीं लगते। फिर ये है, कौन ? क्यों आये हैं, यहाँ ? मुझे तो लगता है, यह कोई अब्दुला दीवाना है। जो हर किसी की शादी में, नाच लेता है। [ज़ोर से] अब मारो, ज़ोर का धक्का..इस अब्दुले दीवाने को।

तीसरा व्यक्ति – [हंसता हुआ, कहता है] – इस दीवाने की कोई लैला आने वाली नहीं, जो गीत गाये ‘कोई पत्थर से न मारो मेरे दीवाने को।’ [ज़ोर से] देखते क्या हो ? मारो रे, धक्का ज़ोर का।

[अब ज़ोरों की धक्का-मुक्की होने लगती है, शोरगुल बढ़ जाता है। शोर सुनकर जुलिट झट बाहर आती है, और वहां उसे धक्के खाते हुए मोहनजी दिखायी देते हैं। उनको देखते ही उसे बहुत ताज्जुब होने लगता है, वह सोचती हुई अपने होंठों में कहती है..]

जुलिट – [होंठों में ही] – अरे, यह इंसान कैसा चैप है ? मैंने तो ख़ाली औपचारिकता निभाते हुए इसको कहा था, के ‘आप आ जाइये प्लस पोलियो कैम्प में, लंच की फ़िक्र करना मत।’ .मगर यह तो ठहरा, मुफ़्तखोर। दो पुड़ी आलू की सब्जी के साथ, खाने आ गया यहाँ ?

[अब बेचारे मोहनजी की दुर्दशा हो जाती है, कतार में खड़े लोगों ने मोहनजी की हालत गेंद के सामान बना डाली। कोई उनको इधर धक्का मारे, तो कोई उधर। आख़िर, उन लोगों के सामने बेचारी जुलिट लिहाज़ के मारे मोहनजी को कहने लगी...]

जुलिट – अरे मोहनजी, आप ? अरे आइये, आइये। [धक्के दे रहे लोगों को, ज़ोर से कहती है] अरे साहेबान, इनको आने दीजिये।

मोहनजी – ये आये, मोहनजी। [कूदकर जुलिट के पास आने का प्रयास करते हैं, मगर उसी वक़्त भीड़ लगा देती है ज़ोर का धक्का। और बेचारे मोहनजी, सीधे आकर गिरते हैं जुलिट के चरणों में। शर्माती हुई जुलिट, झट दूर हट जाती है। फिर, कहती है..]

जुलिट – [दूर हटती हुई] – अरे क्या करते हो, मो..मो..मोहनजी ? आप तो बड़े आदमी हैं, इस नाचीज़ के चरणों में..नहीं नहीं..!

[अब मोहनजी का हाथ थामकर, उन्हें उठाती है जुलिट। उठने के बाद, वे जुलिट को देखते हुए मुस्कराते हैं। फिर, कहते हैं..]

मोहनजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – जुलिट बाई आपके आगे, मैं बड़ा आदमी नहीं हूं। बस आपके जैसा भोला-भाला आदमी हूं, कढ़ी खायोड़ा। दिल-ए-मोहब्बत का प्यासा, आपका दास मोहनजी हूं। बस मुझे चाहिए, आपके दिल में बैठने का स्थान। इसके अलावा, मुझे कुछ नहीं चाहिए।

भीड़ में एक व्यक्ति कहता है – मगर, आप बैठोगे कहाँ..?

दूसरा व्यक्ति – [जवाब देता हुआ] – सुना नहीं क्या, तूने ? दिल में बैठेंगे, और कहां ? मारवाड़ी में बोलकर सुनाऊं, क्या ? “जनाबेआली मोहनजी, बिराजेला हिवड़ा मायं।समझ गया, भला आदमी ?

[उन लोगों के कोमेंट्स सुनकर, मोहनजी अपने मन में ख़ुश होते हैं। फिर अपने लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, उस व्यक्ति की तरफ़ देखते हुए अवाम को भाषण देते हुए कहते हैं..]

मोहनजी -  [भाषण देते हुए, बोलते ही जाते हैं] – आप लोग, ऐसी सेवाभावी नर्स बाईसा की क्या सेवा कर सकते हो ? मैं तो सेवाभावी नर्स बाईसा को, अपनी पलकें बिछाकर बैठाता हूं।

[मोहनजी की बात सुनकर, शर्म के मारे जुलिट के गाल लाल हो जाते हैं। फिर वह शर्माती हुई कहती हैं]

जुलिट – [शर्माती हुई, कहती है] – मुझे गिरना नहीं है, जी।

तीसरा व्यक्ति – नर्स बहनजीसा, आप इनकी पलकों पर ज़रूर बैठ जाना..फ़र्क क्या पड़ता है ? मोहनजी हो जायेंगे काने या फिर.. दोनों आँखें खोकर, बन जायेंगे ‘सूरदास’। और, फिर क्या ? आगे से मोहनजी, किसी भी सुन्दर नारी को अपनी पलकें बिछाकर बैठाएंगे नहीं।

दूसरा व्यक्ति – सूरदास हो जायेंगे तो बहुत अच्छा, फिर हर गली-गली में भ्रमण करते हुए गाते चलेंगे..के, ‘राधा प्यारी, नयनों में आकर बस जा प्यारी।’

तीसरा व्यक्ति – अरे, गेलसफे। ऐसे नहीं, ऐसे गायेंगे [गीत गाने का अभिनय करते हुए] ‘मेरी जुलिट प्यारी, प्यारी दुलारी। बस जा नयनों में, आकर। जुलिट प्यारी, प्यारी दुलारी..

दूसरा व्यक्ति – [काफ़िया जोड़ता हुआ, बेसुर में गाता है] – तेरे विरह में यह मोहन लाल, पागल बन गया आज़। जुलिट प्यारी, प्यारी दुलारी..बस जा प्यारी, आँखों में आकर। ओ मोहन लाल तेरा दुःखड़ा जाने कौन, घायल की गति जाने घायल जाने..जुलिट प्यारी प्यारी दुलारी, बस जा आँखों में आकर।

[दूसरे व्यक्ति के गाने की बेसुरी आवाज़ सुनकर, कतारों में खड़े सभी लोग ज़ोरों से हंसने लगते हैं। अब जुलिट, अपनी सीट पर आकर बैठ जाती है। इतने में हरक लाल नाम का चपरासी, बड़े साहब का सन्देश लेकर जुलिट के पास आता है। और जुलिट से कहता है..]

हरक लाल – [बड़े साहब का आदेश सुनाता हुआ] – बड़े साहब नाराज़ हो रहे हैं, वे कह रहे हैं के ‘यह हुड़दंग कौन मचा रहा है ? अब आपको, बड़े साहब ने इसी वक़्त बुलाया है।’

जुलिट – कहना, अभी आ रही हूं।

[हरक लाल जाता है। अब बड़े साहब के पास जाने के लिए, जुलिट अपनी सीट छोड़कर उठती है। उठकर, वह अपनी सीट पर मोहनजी को बैठा देती है। और उन्हें रजिस्टर थमाकर कहती है..]

जुलिट – [रजिस्टर थमाती हुई, कहती है] – देखो मोहनजी, इस रजिस्टर में आंकड़े भरे हुए हैं। इन आंकड़ो से साफ़ प्रतीत होता है, के कितने बच्चों को दवाई पिला दी गयी है। बस आपको जोड़े करनी है, और साथ में उन जोड़ो का क्रोस भी मिलना चाहिए। अब दवाई पिलाने का झंझट छोड़िये, मेडिकल वाली बाई पिला देगी दवाई।

[सफ़ेद साड़ी पहनी हुई एक औरत आती है, उसके हाथ प्लस पोलियो की दवाओं का बैग है। बैग टेबल पर रखकर, वह बैग से निकलती है पोलियो ड्रोप की शीशी। कतारों में खड़े मर्द व औरतें, एक-एक कर अन्दर दाख़िल होते हैं। अब वह उन नन्हें बच्चों के मुंह में, पोलियो दवाई की खुराक डालती हुई दिखाई देती है। इन बच्चों को पोलियो की खुराक दी जाने के बाद, बच्चों के अभिभावक उन्हें गोद में लिए हुए..कैम्प से बाहर जाते हुए दिखाई देते हैं। अब जुलिट रूख्सत होते वक़्त, मोहनजी से कहती है..]

जुलिट – [जाते-जाते] – ठीक है ना, मोहनजी ? अब, आप बूथ सम्भाल लेना। बड़े साहब से मिलकर जस्ट आ रही हूं, मोहनजी।

[जुलिट के जाने के बाद, मोहनजी, रजिस्टर में जोड़े करते दिखाई देते हैं। लम्बवत जोड़े करने के बाद, वे अनुप्रस्थ जोड़ों के क्रोस मिलाने की कोशिश करते हैं। अब घड़ी में करीब, अपरान्ह तीन बजे हैं। अब जोड़ों का क्रोस मिलाते-मिलाते बेचारे मोहनजी परेशान हो जाते हैं, कभी बेचारे लम्बवत जोड़ों की जांच करते हैं..तो कभी अनुप्रस्थ जोड़ों का मिलान करने का निरर्थक प्रयास करते हैं। मगर जोड़ों का क्रोस, मिलता दिखाई नहीं देता ? आख़िर, उन्हें परेशान पाकर सुपारी लालसा उनसे कहते हैं..]

सुपारी लालसा – मोहनजी मालिक, क्या बात है ? परेशान, काहे हो रहे हो ?

मोहनजी – [परेशान होकर कहते हैं] – धान की बोरियां गिनने का काम बहुत आसान है, मगर बापूड़ा बच्चों को गिनना बहुत कठिन है।

[उनकी बात सुनकर, सुपारी लालसा को हंसी आ जाती है। वे हंसते हुए कहते हैं..]

सुपारी लालसा – [हंसते हुए, कहते हैं] – बच्चें गिनने बहुत कठिन है, मोहनजी। मगर आपके लिए तो, बच्चें पैदा करना भी बहुत कठिन है। तभी मालिक मोहनजी, ढलती उम्र में आपने बच्चें पैदा किये हैं आपने। कहिये जनाब, यह बात सच्च है या नहीं ?

मोहनजी – क्या करूँ रे, कढ़ी खायोड़ा ? काम निपटते जा रहे हैं, बच्चें पैदा भी हो गए, और दवाई पीकर भी चले गए। मगर अब जोड़ों का क्रोस मिल नहीं रहा है, मास्टर साहब ? अब यह जुलिट क्या समझेगी, के इतना पढ़ा हुआ आदमी जोड़े बिल्कुल ग़लत करता जा रहा है ? मेरे रामा पीर, अब तू ही आकर मेरी गाड़ी को चला।

सुपारी लालसा – [मोबाइल कान के पास लेजाते हुए, कहते हैं] – हल्लो जनाब, आप कौन बोल रहे हैं..?

मोबाइल से आवाज़ आती है – रतन सिंह बोल रहा हूं, मोहनजी वहां है क्या ?

सुपारी लालसा – [मोबाइल में बात करते हुए] – कौन रतनसा ? मोहनजी यहीं बैठे हैं। कहिये जनाब, क्या ख़िदमत करूँ आपकी ?

रतनजी – [मोबाइल से आवाज़ आती है] – ज़रा मोहनजी से बात करवाइये, ना।

सुपारी लालसा – [फ़ोन पर] – हुज़ूर, मेरे पहलू में बैठे हैं जनाब। लीजिये, बात कीजिये..हुज़ूर।

[सुपारी लालसा झट, मोबाइल मोहनजी को थमा देते हैं। फिर, वे उनसे कहते है]

सुपारी लालसा – [मोहनजी को मोबाइल थमाकर कहते हैं] – रतनजी का फ़ोन आया है, अब आप उनसे बात कीजिये। आप आराम से, गुफ़्तगू करते रहिये। अब छोड़ दीजिये, इस रजिस्टर को। आप अफ़सर हो, यह जोड़ें लगाने का काम आपका नहीं..हम मास्टरों को ही, शोभा देता है। अब उठ जाइये, मैं अपने-आप यह काम संभाल लूँगा।

[मोहनजी मोबाइल लेकर, सीट से उठ जाते हैं। उनके हटते ही, सुपारी लालसा झट उनकी सीट पर बैठ जाते हैं। फिर केलकुलेटर से, रजिस्टर में की हुई जोड़ों की जांच करने में व्यस्त हो जाते हैं।]

मोहनजी – [मोबाइल से, रतनजी से बातें करते हुए] – हल्लो, कौन..?

मोबाइल से आवाज़ आती है – अरे मोहनजी, मैं हूं रतन सिंह।

मोहनजी – [मोबाइल से] - अरे आप रतनसा मालिक, कढ़ी खायोड़ा..? यह क्या कर डाला आपने ? अकेले-अकेले ही, खाना खाकर आ गए ?

रतनजी – [मोबाइल से] – के.एल.काकू ने, आपको कुछ कहा नहीं ?

मोहनजी – [मोबाइल से] - हां, जी हां जनाब। मुझे पूरा ध्यान है, कल ही के.एल.काकू कह रहे थे के ‘बांगड़ कॉलेज के अन्दर, व्यापारियों का सम्मलेन रखा गया है। भोज भी रखा गया है, और साथ में यात्रा-भत्ता भी मिल जाएगा..इस सरकारी टूर का।’ मगर मैं आपको एक यह बात कह रहा हूं, के..

रतनजी – [मोबाइल से] – कहिये हुज़ूर, कहीं कोई गुस्ताख़ी तो न हो गयी हमसे ?

मोहनजी – [मोबाइल से] अरे यार रतनजी, क्या कहूं आपसे ? आपने ओमजी का नाम लिखवाया ही क्यों ? आख़िर उनको यात्रा-भत्ता मिलने वाला नहीं, मेरा नाम लिखवा देते तो यार, मैं उठा लेता यात्रा-भत्ता।

रतनजी – अरे मोहनजी मालिक, आप ठहरे अधिकारी। आपको मना करने वाला वहां है कौन ? आख़िर आपके दोस्त के.एल.काकू के हाथ में ही है, इस पूरे सम्मलेन की व्यवस्था।

मोहनजी – जी हाँ, अभी आ रहा हूं बेंगलूर एक्सप्रेस में बैठकर। वहां आकर ढूंढ़ लूँगा, काकू को। काकू मुझको खाना भी खिला देगा, और साथ में उपस्थिति प्रमाण-पत्र भी मुझे दिला देगा। फ़ोन रखता हूं जी, बस आ रहा हूं जी।

[मोबाइल बंद करके, सुपारी लालसा को थमा देते हैं मोबाइल। फिर बैग और टिफ़िन उठाकर, स्टेशन के प्लेटफोर्म की तरफ़ क़दम बढ़ा देते हैं। थोड़ी देर में ही, वे प्लेटफोर्म पर पहुँच जाते हैं। मंच पर अँधेरा छा जाता है। मंच रोशन होता है, जैसे ही मोहनजी प्लेटफोर्म पर क़दम रखते हैं..वहां खड़ी बेंगलूर एक्सप्रेस प्लेटफोर्म छोड़ देती है, उनके आँखों के सामने ही वह गाड़ी सामने से गुज़रती हुई दिखाई देती है। बेचारे मोहनजी के दिल की हालत उस गाड़ी को जाते देखकर, कैसी रही होगी ? वह तो, उनका रामा पीर ही जाने। बेचारे मुंह लटकाये, आकर बैठ जाते हैं..प्लेटफोर्म पर रखी बेंच पर। उनके बेंच पर बैठने के बाद एक ग्रामीण वहां चला आता है, और उनके पास आकर उनके पहलू में बैठ जाता है। इस वक़्त इस ग्रामीण के सर पर सफ़ेद पगड़ी रखी है, और उसके बदन पर पहने हुए सफ़ेद उज़ले धोती-कमीज़ बुगले के पर के माफ़िक लग रहे हैं। बैठने के बाद, वह उनको “जय रामजीसा” कहकर उनका अभिवादन करता है।]

पगड़ी वाला ग्रामीण – [मोहनजी से कहता है] – जय रामजी सा। पावणा, पहचाना मुझे ?

[मोहनजी की एक आँख की मांसपेशियां कुछ कमज़ोर है, जिसके कारण वे एक आँख को तेज़ प्रकाश में पूरी खोल नहीं पाते। उस ग्रामीण की देखते वक़्त, वे सामने से आ रही धूप का सामना कर नहीं पाते..और इस कारण वे, एक आंख की पलक को खोल नहीं पाते। उनकी यह हालत देखकर वह ग्रामीण उनको ताने देता हुआ कहता है ]

पगड़ी वाला ग्रामीण – [ताना देता हुआ, कहता है] – पावणा, आँख मत मारो, मैं औरत नहीं हूं..मर्द हूं। समझे गए, आप ? अब घर जाकर, लाडी बाई को आँख मारना...!

[इतना कहकर, वह ग्रामीण खिल खिलाकर हंस पड़ता है। उधर मोहनजी अपने दिमाग़ पर ज़ोर देकर सोचते हैं, के ‘आख़िर, यह आदमी इनको कैसे जानता है ?’]

मोहनजी – [सोचते हुए, होंठों में ही कहते हैं] – अरे रामा पीर, ये महानुभव आख़िर कौन हो सकते हैं ? इन्होंने आख़िर मुझे पावणा कहकर क्यों बतलाया है ? कहीं ये मेरे ससुराल से...[याद आते ही, प्रगट में कहते हैं] अरे कढ़ी खायोड़ा, आप तो सौभाग मलसा हो, मेरे ससुराल के गाँव वाले। आपको कैसे भूल सकते हैं, और न भूल सकता हूं आपके किये काम को।

सौभाग मलसा – भूल कैसे सकते हो, पावणा ? मैंने अहसान किया था, आप पर। शादी के वक़्त आपकी सालियों ने दाल में मिंगणियां डाल रखी थी, मैं यह भेद आपके सामने नहीं खोलता तो आप मिंगणियों को कोकम समझकर खा जाते ?

[इस घटना को याद करते, दोनों ज़ोर से ठहाके लगाकर हंस पड़ते हैं। अब मोहनजी टिफ़िन खोलकर, सौभाग मलसा की मनुआर करते हुए कहते हैं।]

मोहनजी – [मनुआर करते हुए कहते हैं] – खाना खाए हुए काफ़ी वक़्त बीत गया होगा अब आइये जनाब, लंच कर लीजिये। देखिये जनाब आपकी बहन के हाथों के बनाए हुए देसी घी से तर फुलके, और गोविंद-गट्टों की सब्जी..अरोग लीजिये, जनाब। फिर हम दोनों पियेंगे, गर्म-गर्म मसाले वाली चाय। क्या सालाजी जनाब, ठीक है ना ?

सौभाग मलसा – रहने दीजिये, पावणा। आप, भूखे रह जाओगे।

मोहनजी – अरोगिये, जनाब। पुरसी हुई थाली का, निरादर नहीं करना चाहिए। रामसा पीर इस तरह जीमने का मौक़ा, कभी-कभी ही देते हैं। ऐसा मौक़ा जो चूकता है, वो करमठोक कहलाता है।

सौभाग मलसा – रहने दीजिये, पावणा। मुझे जब भी वक़्त मिलेगा, मैं आपकी हवेली आकर खाना खा लूँगा।

मोहनजी – [होंठों में ही कहते हैं] – खाना खा ले, साले। फिर घर जाकर लाडी बाई के ऊपर मारूंगा, रौब। कहूँगा, के ‘अरी, ओ भागवान। आपके पीहर वाले सौभाग मलसा को खाना खिलाया, फिर उनको पायी चाय। अब कभी आप मुझे कहना मत, के मैं कंजूस हूं ?’ यहाँ, मेरा क्या जाने वाला ? मैं तो बांगड़ कॉलेज जाकर, मुफ़्त में खाना खा लूँगा।

सौभाग मलसा – ज़्यादा सोचा मत करो, पावणा। मेरी फ़िक्र करने की आपको कोई ज़रूरत नहीं, मैं तो कभी भी आपकी हवेली आकर भोजन कर लूंगा। वहां बहन के हाथों से बनाया दाल का हलुआ, देसी घी में तली हुई पुड़ियां, गोविन्द-गट्टों और केर-दाखों की बनी सब्जी। वाह पावणा, वहां खाने का क्या लुत्फ़ होगा ? 

मोहनजी – साले साहब, दिन में सपने देखा मत करो। यह सामने रखी भोजन सामग्री, सपने से बेहतर है। अब आपको मेरी कसम, शुरू कीजिये..ज़्यादा मनुआर करवाना, देवी अन्नपूर्णा को नाराज़ करने के बराबर है।

[अब मोहनजी टिफिन खोलकर, सौभाग मलसा का हाथ पकड़कर टिफ़िन के पास लाते हैं। बस, फिर क्या ? सौभाग मलसा तो जनाब, ऐसी मनुआर का ही इंतज़ार कर रहे थे। झट रोटी का निवाला तोड़कर, सब्जी में डूबा-डूबाकर मुंह में डालने लगे। भोजन करते-करते, सौभाग मलसा कहने लगे..]

सौभाग मलसा – [मुंह में निवाला डालते हुए] – पावणा, इतना ज़ोर देकर आप कह रहे हो..तो फिर मुझे क्या ? मैं तो जनाब, मनुआर का कच्चा ही हूं। लीजिये, यह शुरू किया, आपका राजभोग। [अगला निवाला मुंह में डालते हुए] आपके रावले का क्या ? कभी भी आकर, राजभोग अरोग लेंगे।

[अब सौभाग मलसा भोजन पर इसे टूट पड़ते हैं, मानो किसी तीन दिन के भूखे आदमी को बड़ी मुश्किल से भोजन दिखाई दिया हो ? मोहनजी की बुलंद निगाहें अब भोजन पर गिरती है, जिसे देखकर वे अब पछताते हैं..के ‘अब तक उन्होंने क्यों नहीं टिफ़िन खोलकर देखा ?’ आज तो लाडी बाई ने उनकी मन-पसंद गोभी, मटर, और लाल टमाटर की सब्जी और साथ में देसी घी में तरा-तर डूबे हुए फुलके, टिफ़िन में डाले है। सुबह खिला दिया, इतना खीच..के पेट में रत्ती-भर ठौड़ रही नहीं, उस वक़्त उनको तो सांस लेना कठिन हो गया ? और अब, उन्हें लाडी बाई के ऊपर क्रोध आने लगा..के, क्यों नहीं कहा लाडी बाई ने, उन्होंने क्या-क्या टिफ़िन में डाला है ? इस तरह सोचते-सोचते मोहनजी, होंठों में ही बड़बड़ाने लगे..]

मोहनजी – [होंठों में ही] – अरे भले आदमी, इतना मत खा। दो रोटी और कुछ सब्जी तो मेरे लिए भी छोड़ दे..पेट भरने का तो सवाल नहीं, मगर कढ़ी खायोड़ा सब्जी तो चख लूंगा। अरे..अरे तू तो साफ़ कर गया..मोहन प्यारे, रह गया भूखा। [हाथ में लगी घड़ी को देखते हुए, कहते हैं] अब तो यार, कब मिलेगी गाड़ी ? रामा पीर, अब मैं कब देखूँगा पाली ?

[सौभाग मलसा तो जनाब ऐसे भुख्खड़ निकले, जिन्होंने थोड़ी देर में ही रोटियां और गोभी, मटर, आलू व लाल टमाटर की सब्जी को गटागट खाकर टिफ़िन को साफ़ कर डाला। फिर टिफ़िन को बंद करके, मोहनजी से पानी की बोतल लेते हैं। पानी पीकर, अपने जूठे हाथ धो डालते हैं। अब डकार लेकर, वे मोहनजी से कहते हैं..]

सौभाग मलसा – पावणा, आप इतना सोचा मत करो। ज़्यादा सोचने से बी.पी. की बीमारी हो जाती है। लीजिये, अब अपुन मसाले वाली चाय पी लेते हैं। जेब से निकालिए छ: रुपये..[चाय की थडी वाले को आवाज़ देकर अपने पास बुलाते हैं] ओ चाय वाले भाई साहब, ज़रा इधर दो कप चाय लेकर इधर आना।

[पास खड़े चाय की थड़ी वाले को आवाज़ देकर, पास बुलाते हैं। उसके पास आने पर, वे मोहनजी से छ: रुपये लेकर थड़ी वाले को दे देते हैं। थड़ी वाला झट चाय से भरे कप, उन दोनों को थमा देता है। अब चाय पीकर मोहनजी घड़ी देखते हैं, फिर फिक्रमंद होकर वे कहते हैं।]

मोहनजी – [फिक्रमंद होकर वे कहते हैं] - अरे रामा पीर, इस खाने-पीने में करीब आधा क्लाक बीत गया। अब करूँ क्या, अब कैसे मिलेगी पाली जाने वाली बस ? सौभाग मलसा – चले जाओ पावणा बस-स्टेण्ड। अब तो जीप के अलावा, पाली झट पहुँचने का कोई दूसरा साधन नहीं। अब तो जनाब, जीप में बैठकर ही जाना होगा आपको। ज़्यादा देर की तो, यह जीप साधन भी नहीं मिलेगा। फिर यहाँ बैठकर, मक्खियां मारोगे पावणा।

मोहनजी – ऐसी कड़वी जबान मत बोलिए सालाजी। मेरा पाली जाना बहुत ज़रूरी है।

सौभाग मलसा – सुनो, पावणा। आज तो खारची में किसी राजनैतिक दल ने, किसानों की रैली आयोजित करने के लिए कई जीपें-ट्रकें रोक रखी है। मैं खुद भी इस रैली में, यहाँ आया हुआ हूं। अब पोने चार बजने वाले हैं..

[यह सुनते ही, मोहनजी के दिल में मचने लगी उतावली। बैग और टिफ़िन उठाकर, फटके से रवाना होते हैं...बस स्टेण्ड, जाने के लिए। फिर क्या ? बेचारे मोहनजी दौड़ते-भागते जा पहुंचते हैं, बस स्टेण्ड। बड़ी मुश्किल से उन्हें एक जीप खड़ी मिलती है, हाम्पते हुए वे जीप वाले के नज़दीक आते हैं। इनके चेहरे पर उतावली के भाव पढ़कर, वह जीप वाला इनसे कहता है..]

जीप वाला – ओ मूंछों वाले भाई साहब, पाली जाना हो तो बैठ जाइये जीप के अन्दर। आप से पच्चास रुपये भाड़ा लूँगा, व भी इस शर्त के साथ..के आप पांच-सात सवारी लाकर, इस जीप में बैठाओगे। ज़्यादा सवारियां लाये तो, आपके लिए भाड़ा बीस रुपया कर दूंगा।

[इस जीप में पांच-छ: सवारियां पहले से बैठी हुई है, दो या चार सवारियां और आ जाये..तो, यह जीप पूरी ठसा-ठस भर जायेगी। मगर इस जीप वाले के दिल में समाया हुआ है, लालच..वह इस जीप को, रवाना होने नहीं देगा ? अब बेचारे मोहनजी, आख़िर हो जाते हैं परेशान। के, ‘यह जीप आख़िर कब रवाना होगी ?’ आगे देर हो चुकी है, फिर क्या ? देरी में, और देरी। आख़िर वे जीप वाले से कहते हैं..]

मोहनजी – [परेशान होकर कहते हैं] – ओ जीप वाले भाई, ज़रा सुनिए मेरी बात। अब आप रवाना कीजिये, इस जीप को। मेरे बाप, कढ़ी खायोड़ा जीप ठसा-ठस भरी जा चुकी है। मुझे पाली जल्द पहुँचना है, ज़रूरी काम है।

जीप वाला – सबके ज़रूरी काम है, भाईसाहब। अगर आपको जीप चालू करवानी हो तो, जनाब लाइए हर सवारी पच्चास रुपये। अब आप पूछ लीजिये, दूसरी सवारियों से..वे सहमत है या नहीं ?

मोहनजी – [सवारियों से कहते हैं] – आप सब जिद्द मत कीजिये, दे दीजिये पच्चास रुपये हर सवारी..इस जीप वाले को। आप नहीं जानते, पाली में मेरा बहुत ज़रूरी काम है ? 

[इन सवारियों में बैठा है, एक खडूसिया आदमी। उसकी गंदी आदत है, हर बात-बात में टोचराई करनी और लोगों का बनता काम बिगाड़ना। वह मोहनजी की बात सुनते ही, झट उतर जाता है जीप से। और हाथ नचाकर, कहता है अलग से..]

खाडूसिया आदमी – [हाथ नचाता हुआ कहता है] – आपको इतना जल्दी पाली पहुंचना हो तो, हम सब उतर जाते हैं जीप से। आप दे देना पांच सौ रुपये इस जीप वाले को। आपको अभी पहुंचा देगा, पाली..[दूसरी सवारियों से] भाइयों, नीचे उतर आइये। सेठ साहब को अकेले जाने दो, उनको जल्दी पाली पहुँचना है।

मोहनजी – [चिढ़ते हुए, सवारियों से कहते हैं] – आप लोग़ क्यों उतरते हो ? चलिए, मैं नीचे उतर जाता हूं। फिर आवाज़े देकर सवारियों को बुला लाता हूं, आख़िर गर्ज़ तो मुझे है..जल्दी जाने की।

[मोहनजी नीचे उतरकर, आते-जाते लोगों को आवाजें देते हुए ज़ोर-ज़ोर से कहते हैं।]

मोहनजी – [लोगों को आवाज़ देते हुए] – बीस-बीस रुपये पाली, बीस-बीस रुपये पाली। आ जाओ भाईजान, आ जाओ बहनजी, आ जाओ सेठ साहब। जल्दी आ जाइए, जनाब। ऐसा मौक़ा मत चूकिए, साहेबान। बीस-बीस रुपये, बीस-बीस रुपये पाली। आ जाओ, आ जाओ ।

[जीप के नज़दीक, एक ठेला रखा है..जिसमें केले भरे हैं। पास खड़े केले वाले को मोहनजी का इस तरह लोगों को आवाज़ देकर बुलाना अख़रता है, क्योंकि उनके द्वारा इस तरह पुकारे जाने से उसके ग्राहक टूटने लगे। वे केले ख़रीदने की जगह मोहनजी को घेरकर खड़े हो जाते हैं, उनका ख्याल यही रहा होगा शायद मोहनजी जादूगर है और इस वक़्त वे कोई जादू का खेल दिखला रहे हो ? इस कारण धंधा नहीं ज़मने से वह, मोहनजी पर नाराज़ होकर उन्हें कटु शब्द सुना बैठता है।]

केला वाला – [गुस्से में] – ए फूटी झालर, क्या कर रहा है, खोड़ीला-खाम्पा ? मेरा धंधा क्यों बिगाड़ रहा है..? अब यहाँ से फूट, नहीं तो..

[इधर दारु के ठेके पर बैठकर, सौभाग मलसा एक पूरी बोतल गुलाब-छाप देसी दारु पी चुके हैं..अब वे दारु के नशे में झूमते हुए मोहनजी के नज़दीक जा पहुंचते हैं। उन्हें इस तरह आवाजें लगाते देखकर, उनकी हंसी उड़ाते हुए कहते हैं..]

सौभाग मलसा – [हंसी के ठहाके लगाते हुए] – वाह, भाई पावणा। नया धंधा चालू कर दिया, क्या ? 

[इतना कहकर, सौभाग मलसा उनके और नज़दीक आते है। अब उनके मुंह से देसी दारु की खट्टी बदबू निकलती है, अब इस गंध से बचने के लिए मोहनजी झट नाक के ऊपर रुमाल रखकर कहते हैं..]

मोहनजी – [नाक पर रुमाल रखकर] – क्या करूँ, साले साहब ? आज़ तो मैं बुरा फंसा, जनाब। यह कमबख्त जीप वाला कहता है, पूरी सवारियां भरे बिना जीप को चालू करूंगा नहीं। इधर देरी में, और देरी हो रही है।

सौभाग मलसा – [हंसते हुए] – पावणा, क्या बात है ? अभी से लाडी बाई की याद आने लग गयी, क्या ? [गंभीर होकर] इस तरह गैलसफ़ी बात, क्यों करते जा रहे हो पावणा ?         

मोहनजी – आप मज़ाक मत उड़ाओ, मेरी..मैं सच्च कह रहा हूं, मुझे बांगड़ कॉलेज पहुँचना है साले साहब। वहां चल रहा है, व्यापारियों का सम्मलेन, वहां जाकर मैं दूंगा एक चकाचक भाषण। फिर साले साहब, मैं पकडूंगा जोधपुर जाने वाली जम्मूतवी एक्सप्रेस।

सौभाग मलसा – [दारु के नशे में] – आख़िर पावणा जाना तो घर ही है, फिर उतावली क्यों करते जा रहे हो ? घर कहीं उड़कर, जायेगा तो नहीं ? यहीँ पड़ा रहेगा, यार पावणा। [जम्हाई लेते हुए] अब मुंह को तक़लीफ़ क्यों देते हो, अब समझ लो..भाषण-वाषण गया, तेल लेने ?

मोहनजी – फिर, क्या करूँ साले साहब ? आप कोई रास्ता दिखाओ, जनाब।

सौभाग मलसा – फिर चलो यार, मुन्नी बाई के कोठे पर। महफ़िल के मज़े लेंगे यार..मर्दों का क्या..? कहीं भी गुज़ारो रात, बोल यार तूझे पूछने वाला है कौन ? 

[दारू की बोतल थैली से निकालकर, फिर पीते हैं एक घूँट। एक घूँट दारु का पीकर, जनाब मोहनजी से कहते हैं..]

सौभाग मलसा – चुप क्यों हो गए, मिस्टर नटवर लाल ?

मोहनजी – साला साहब मैं मिस्टर नटवर लाल नहीं हू, मैं तो..

सौभाग मलसा – [हंसकर कहते हैं] – जानता हूं रे पावणा, तुम हो कढ़ी खायोड़ा मोहनजी। लुगाई से डरते हो, क्या ? अरे यार पावणा, अब डर मत। रैली ख़त्म हो गयी है..मैं भी अब [ट्रक की तरफ़ उंगली करते हैं] इसी ट्रक से वापस जा रहा हूं। साथ चलिए, पावणा..पहुंचा दूंगा आपको, आपकी बांगड़ कॉलेज ।

[सौभाग मलसा ट्रक की तरफ अपने क़दम बढ़ाते हैं, और उनके पीछे-पीछे मोहनजी चलते हैं..बैग और ख़ाली टिफ़िन, लिए हुए। ट्रक का दरवाज़ा खोलकर सौभाग मलसा, मोहनजी को बैठा देते हैं ड्राइवर के पास में। फिर खुद, उनके पहलू में बैठ जाते हैं। इस तरह बेचारे मोहनजी, दो दारुखोरे सौभाग मलसा और ड्राइवर के बीच में..ऐसे फंस जाते हैं, जैसे दो चक्की के पाट के बीच में गेहूं पीस जाता है। बैठ जाने के बाद, सौभाग मलसा ड्राइवर से कहते हैं..]

सौभाग मलसा – ड्राइवर साहब अब चलिए, गाड़ी किसानों से भर चुकी है। अब देरी किस बात की ? [भोलावण देते हुए, ड्राइवर से कहते हैं] ड्राइवर साहब इधर देखिये, ये हमारे पावणा मोहनजी है..[नशे में, उनके मुंह से देसी दारु की गंध निकलती है] इनको किसी बात की तक़लीफ़ नहीं होनी चाहिए, ड्राइवर साहब।

ड्राइवर – इनको तो कोई तक़लीफ़ होने वाली नहीं, मगर आप यह सोचिये..ड्राइवर बिना नशे-पत्ते कैसे गाड़ी चलाएगा ? मालिक आपने तो खूब नशा कर लिया है, मगर मैंने कहाँ किया ?

सौभाग मलसा – बस, इतनी सी बात ? [थैली से दारू की बोतल निकालकर, उसे देते हुए कहते हैं] यह ले, तू भी चढ़ा ले दो घूँट दारु के।

[बोतल से चार घूँट चढ़ाकर, ड्राइवर बोतल को मोहनजी के लबों के पास ले जाता है। फिर, उनसे कहता है..]

ड्राइवर – [बोतल को मोहनजी के होंठों तक लेजाते हुए, कहता है] – अरे पावणा, पी लो झट। पीकर, हो जाओ मस्त।

[अब दारु की बोतल को देखकर, मोहनजी ऐसे डरते हैं..जैसे उन्होंने किसी सांप को, देखे बिना उसको छू लिया हो ? मगर यहाँ वह ड्राइवर ठहरा बोरटी का काँटा, बोतल हटाने की जगह..वो तो जबरदस्ती, उनको दारु पिलाने की कोशिश करता है..! इस तरह खींच-तान करने से कुछ दारु छलक कर, उनकी सफारी-सूट पर गिर जाती है। अब ड्राइवर, कौनसा अल्लाह मियाँ की गाय ठहरा ? वह कमबख्त, सौभाग मलसा को ताने देता हुआ कहता है..]

ड्राइवर – [ताने देता हुआ, कहता है] – सौभाग मलसा मालिक, आपके पावणा तो मुझे हिज़ड़े लगते हैं। वाह मालिक, वाह। रामसा पीर तेरी जय हो, अब यह बोतल मेरी ही क़िस्मत में लिखी है।

[इतना कहकर वह ख़ोजबलिया, गटक जाता है पूरी दारु की बोतल। फिर बिना देखे, वह खिड़की के बाहर बोतल को उछालकर फेंक देता है, जो सीधी जाकर उस केले वाले के सर पर चांदमारी कर बैठती है। सर पर बोतल गिरते ही, बेचारे केले वाले को धवल दिन में दिख जाते हैं आसमान के तारे। जैसे ही चीखता हुआ केला वाला ट्रक की तरफ़ देखता है, उसी वक़्त वह कुदीठ ड्राइवर नीचे झुक जाता है। और बेचारे नादान मोहनजी, उसकी निग़ाह में आ जाते हैं। उनको देखते ही, वह केला वाला भड़क जाता है। अब वह चिल्ला-चिल्लाकर, मोहनजी को न जाने क्या-क्या अपशब्द कहता जाता है..]

केले वाला – [चिल्लाता हुआ कहता है] – अरे इस नालायक मूंछों वाले ने, मुझे मार डाला रे..! [सर दबाता हुआ, कहता है] कमबख्त, लोगों का धंधा ख़राब करके तेरा दिल ख़ुश नहीं हुआ, जो अब साले दारु पीकर मचा रहा है धमा-चौकढ़ी ? ठहर जा, अभी बुलाकर लाता हूं दरोगे को। तेरी अक्ल ठिकाने नहीं लगा दी, तो मेरा फूसा राम नहीं।

[दरोगा का नाम सुनते ही, मोहनजी ज़ोर से डरते हैं। उनका यह लल्लू-पंजू दिल, करने लगा धक-धक। वे डरकर, झट ड्राइवर से कहते हैं..]

मोहनजी – [डरते हुए कहते हैं] – गाड़ी को झट चलाइये, ड्राइवर साहब। अब देरी की तो पुलिस आकर, हम सबकी पिछली दुकान को डंडे मारकर सूजा देगी। अरे बापूड़ा, अब जल्दी कीजिये। चलो..चलो..!

[पुलिस का नाम सुनते ही, ड्राइवर का नशा हवा बनाकर गायब होने लगा। फटाक से उसने चाबी घुमायी, गाड़ी को गेयर में डालकर उसकी रफ़्तार बढा देता है। अब वह गाड़ी हवा से बातें करने लगती है, रफ़्तार बढने से खिड़की से ठंडी हवा के झोंकें आने लगे। ठंडी हवा का आभास पाकर, इन दोनों का नशा वापस चढ़ने लगता है। अब वे दोनों नशे में, गीत गाते हैं।]

सौभाग मलसा – [गीत गाते हुए] – पीव दारु नै चढ्यो भाखर, ओ मोरियो सरदार।

ड्राइवर – [गीत साथ-साथ गाते हुए] – झट पट तू आ जा मोरनी डूंगर-डूंगर घूमां, मोरनी डूंगर डूंगर घूमां, मोरनी डूंगर डूंगर घूमां।

सौभाग मलसा – [ऊँची तान लेकर, गाते हैं] – तू आ जा मोरनी ए, तू आ जा मोरनी ए [रुक कर, मोहनजी से कहते हैं] अरे पावणा, आप भी गाओ यार। गाने में हमारा साथ दीजिये, ना ?                  

ड्राइवर – [हंसी के ठहाके लगाता हुआ, कहता है] – ये आपके पावणा सरदार, मर्द रहे कब ? ये जनाब, अब गायेंगे कैसे ? लाओ अफीम की पुड़ी, डालिए इनके मुंह में..अरे, नहीं नहीं नहीं। इनके लिए तो, अफीम के एक-दो टुकड़े ही बहुत है।

[सौभाग मलसा झट जेब से निकालते हैं, अफीम की पुड़िया। उसमें से दो-तीन टुकड़े निकालकर, मोहनजी के मुंह में डालकर उनका मुंह बंद कर देते हैं। उनका मुंह बंद करके, अब सौभाग मलसा उनसे कहते हैं..]

सौभाग मलसा – [लबों से हाथ हटाते हुए, कहते हैं] – पावणा अब आपके पेट में चली गयी है, अफीम। अब आपके बदन में, गीत गाने की ताकत आ गयी है। लीजिये, अब आप ऐसे गाइए [गीत का अगला मुखड़ा गाते हैं] झमक झमक नाचै मोरियो, रिमझिम पांणी बरसे। उठ रिया, दारु रा भभका..! [हिचकी आती है] हीच..हीच [वापस गाते हैं] पीव दारु नै चढ़े मोरियो, ऊँचौ भाकर चढ्यो..तू आ जा मोरनी ए, तू आ जा मोरनी ए....!

[सौभाग मलसा और ड्राइवर, अब ऊंची तान लेकर गीत गाने लगे। सौभाग मलसा को तो ऐसी तरंग चढ़ी, वे झूम-झूमकर गीत गाने लगे। उधर ठंडी हवा के झोंकों का आभास पाकर, मोहनजी नींद लेने लगे। वक़्त बीतता जा रहा है, मालुम ही नहीं पड़ता है..के, कब पाली आ जाता है ? अचानक ड्राइवर गाड़ी को रोकता है, फिर मोहनजी को उठाकर वह कहता है..]

ड्राइवर – [मोहनजी को जगाते हुए] – उठिए मोहनजी। लो आ गयी, आपकी बांगड़ कॉलेज। उतर जाइये, आप। बस सीधे आप, इस कॉलेज के मुख्य द्वार में घुस जाइये। जय रामजी री सा।

[मोहनजी उतरकर, सीधे गेट की तरफ़ अपने क़दम बढ़ाते हैं। अब ड्राइवर गाड़ी को चालू करता है, थोड़ी देर में ही वह गाड़ी नज़रों से ओझल हो जाती है। गेट से चालीस क़दम दूर चलने के बाद, उन्हें एक पांडाल दिखाई देता है। जहां जगह-जगह व्यापारियों को नयी वेट की नीति को समझाने बाबत, कई पोस्टर लगे हैं। कई स्थानों पर सरकार की वेट नीति के पक्ष में, कई व्यापारी-संघों के कोटेशन इश्तिहारों के रूप में लगे हैं। पांडाल के मंच के पर, कई बिक्री कर एवं व्यापारी संघों के अधिकारी, बिछाये गए गद्दों पर बैठे नज़र आ रहे हैं। पांडाल के अन्दर बिक्री कर महकमें के मुलाजिम एवं विभिन्न क्षेत्र के व्यापारी कुर्सियों पर बैठे हैं। वे लोग बारी-बारी से आ रहे, वक्ताओं के भाषण सुन रहे हैं। इस पांडाल के पास में भोजन करने की व्यवस्था के लिए दो पांडाल लगे हैं, एक में नाना प्रकार के व्यंजन तैयार हो रहे हैं, और दूसरे में व्यापारियों और मेहमानों को खाना खिलाने के लिए कतार-बद्ध टेबल-कुर्सी के सेट रखे गए हैं। इस भोजन-व्यस्था के प्रभारी के.एल.काकू हैं, जो मोहनजी के साथियों के साथ रोज़ का आना-जाना रेल गाड़ी से करते हैं। इस वक़्त वे जगह-जगह जाकर, भोजन-व्यस्था को देख रहे हैं। तभी उनके मोबाइल के ऊपर घंटी आती है, वे झट जेब से मोबाइल निकालकर उसे ओन करके अपने कान के पास ले जाते हैं। मगर पांडाल में माइक की तेज़ आवाज़ के कारण, वे कुछ सुन नहीं पाते। तब वे पांडाल से बाहर निकलकर, सुनने का प्रयास करते हैं।]

के.एल.काकू – [मोबाइल से बात करते हुए] – हेल्लो, कौन बोल रहे हैं जनाब ?

मोबाइल से आवाज़ आती है – मैं कलेक्टर साहब का पी.ए. माथुर बोल रहा हूं, काकू। बात यह है, के..

के.एल.काकू – [मोबाइल से, माथुर साहब को कहते हुए] – अच्छा जी, आप माथुर साहब फरमा रहे हैं..अच्छा फरमाइए, मेरे लिए क्या हुक्म है जनाब ?

माथुर साहब – [मोबाइल से] – आपको कलेक्टर साहब ने याद किया है, जनाब। आप यहाँ अभी आ जाइयेगा, वे आपसे चीफ़ गेस्ट मंत्रीजी के बारे में गुफ़्तगू करना चाहते हैं।

के.एल.काकू – [मोबाइल से माथुर साहब को जवाब देते हैं] – अभी आया, हुज़ूर.. खोटे सिक्के की तरह।

[मोबाइल बंद करके, वे उसे अपनी जेब में रखते हैं। फिर इस सेवा-कार्य में लगे कार्यकर्ताओं को आवाज़ देकर अपने पास बुलाते हैं। दो कार्यकर्ता उनके पास आते हैं, अब वे उन्हें कहते हैं..]

के.एल.काकू – [कार्यकर्ताओं से कहते हैं] – सुनिए, मेरे बहादुर वीरों। कलेक्टर साहब और उनके साथ दो या तीन मिनिस्टर, यहाँ आ रहे हैं। अब आपको मेन-गेट से आने-जाने वाले मार्ग की, हिफ़ाज़त करनी है। इसके लिए कठोर प्रबन्ध करना है, आपको।

पहला कार्यकर्ता – और, हुकूम..

के.एल.काकू - कोई ऐरा-ग़ैरा आदमी अन्दर घुसना नहीं चाहिए, इस लिए आप पुलिस की भी मदद ले सकते हो। ठीक है, अब मैं जा रहा हूं कलेक्टर साहब से मिलने। बाकी का काम, आप संभाल लेना।

[काकू झट स्कूटर पर सवार होकर, कॉलेज के पिछले गेट से बाहर निकल जाते हैं। मंच के ऊपर, अन्धेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच वापस रोशन होता है। मेन गेट के नज़दीक, आने जाने वाले मार्ग पर कार्यकर्ता व पुलिस के कांस्टेबल जगह-जगह खड़े हैं। इन कार्यकर्ताओं ने अपनी कमीज़ की जेब के ऊपर, लाल-पीले रिबन लगा रखे हैं। अब इस वक़्त कांस्टेबल, मार्ग में चहल-कदमी कर रहे ऐरे-गैरे आदमियों को बाहर निकाल रहे हैं। अब काकू से मिलकर आ रहे दोनों कार्यकर्ता, सामने से आते हुए दिखाई देते हैं। इनमें से एक कार्यकर्ता को, सामने गेट से आ रहे काली सफारी पहने मोहनजी दिखायी दे जाते हैं। उनकी हालत देखकर, वह दूसरे कार्यकर्ता से कहता है..जो इस वक़्त प्याऊ के पास खड़ी, ख़ूबसूरत लड़की को देखते जा रहे हैं।]

एक कार्यकर्ता – [मोहनजी को देखता हुआ] – आंखें लाल-लाल, ऐसी लग रही है मानो इनमें दारु के जाम छलक रहे हो ? वाह, क्या इसकी चाल है ? [दूसरे कार्यकर्ता का जवाब नहीं मिलने पर] अच्छी तरह से देखो शर्माजी, इसकी चाल का क्या कहना ? मानो..

[शर्माजी क्या देखते जा रहे हैं, उस कार्यकर्ता को क्या मालुम ? प्याऊ के पास खड़ी सुन्दर हसीन लड़की को, शर्माजी टका-टक देखते जा रहे हैं। वे उस छोरी को देखते हुए, झट कहते हैं..]

शर्माजी – [सुन्दर हसीन लड़की को देखते हुए] – मानो कोई गजगामिनी, मद-मस्त होकर चल रही हो। [उस कार्यकर्ता को कहते हुए] यह बात ही कहना चाहते थे, वर्माजी ?

वर्माजी – [चिढ़ते हुए कहते हैं] – यह बात कैसे हो सकती है, शर्माजी ? आप तो मालिक, मर्द को औरत की उपमा देते जा रहे हैं ?

[अब शर्माजी वर्माजी की गरदन, उस सुन्दर हसीन लड़की की तरफ़ घुमाकर आगे कहते हैं..]

शर्माजी – [सुन्दर लड़की को दिखलाते हुए, कहते हैं] – लीजिये देखिये वर्माजी, इस सुन्दर अप्सरा जैसी लड़की को..जिसे देखकर नयनों की प्यास बढ़ जाती है, ख़त्म होती नहीं। ऐसी छवि को देखने की आतुर ये आँखें, हटने का नाम ही नहीं लेती। मैंने सच्च कहा था, वर्माजी। अब कहिये, मैंने कब आपसे मिथ्या वचन कहे ?

वर्माजी – [गेट की तरफ़ उंगली का इशारा करते हुए, कहते हैं] – अब आप एक मर्तबा गेट की तरफ़ देखिये, शर्माजी। मैं उस आदमी के बारे में, कह रहा हूं..

शर्माजी – कौनसा आदमी ? मुझे कुछ दिखाई दे नहीं रहा है, वर्माजी ?

वर्माजी – देखो, उधर। वह काली सफारी पहना हुआ आदमी..जो लड़खडाता हुआ, दारुखोरे की तरह चल रहा है। कहीं यह शरारती तत्व, इस मिटिंग में व्यवधान पहुंचाने तो नहीं आ रहा है ? अरे शर्माजी, इसे निकालिए बाहर।

शर्माजी – हाँ वर्माजी, इस बदमाश को बाहर तो निकालना ही होगा। ये कामचोर पुलिस वाले, आख़िर ध्यान क्या रखते हैं ?

[वहीँ से, बीड़ी पी रहे हवलदार को आवाज़ लगाकर कहते हैं..]

शर्माजी – [हवलदार को आवाज़ देते हुए, ज़ोर से कहते हैं] – अरे ओ हवलदार साहब। बीड़ी बाद में पीना, अभी कलेक्टर साहब आ रहे हैं। माता के दीने, आपको यह ध्यान है या नहीं ?          

पुलिस वाला – [नज़दीक आकर कहता है] – हुज़ूर, मुझे पूरा ध्यान है..! [मोहनजी की तरफ़ उंगली का इशारा करके] – इधर देखिये हुज़ूर, काली सफारी पहने हुए कलेक्टर साहब इधर ही आ रहे हैं। मुझे लगता है, इन्होने मिनिस्टर लोगों की पार्टी में खूब जमकर दारु पी है। चलिए जनाब, आगे चलकर उनकी आवभगत करते हैं।

शर्माजी – [क्रोधित होकर कहते हैं] – हवलदार साहब आपकी आँखें है, या आलू ? या आप हैं, सरकस के जोकर ? आपको यह दारुखोरा, कलेक्टर लगता है ? बाहर निकालो, इसे। फूटो यहाँ से, यहाँ तो हमें सारे कामचोर आदमियों से ही पाला पड़ता है।

[हवलदार आगे जाकर, मोहनजी को आगे आने से रोकता है। डंडा बजाकर, उनसे कहता है..]

हवलदार – [मोहनजी को आगे आने से रोकता हुआ, डंडा बजाकर कहता है] – कहाँ जा रिया है, ठोकिरा ? यह कोई सिनेमा होल है, जो घुमता हुआ यहां चला आया ?

मोहनजी – सिनेमा होल नहीं है साहब, मगर सेमीनार ज़रूर है।

हवलदार – तूझे क्या यहाँ आकर, कुश्ती लड़नी है क्या ?

मोहनजी – [हंसते हुए, कहते हैं] – कैसे कुश्ती लड़े, जनाब ? मुझको सेमानार के मंच पर जाकर, बक-बक करनी है..! यानि, भाषण देना है। अब समझ गए, इन्सपेक्टर साहब ?     

[ज़र्दे को चखे काफी वक़्त हो गया, अब मोहनजी को ज़र्दे की तलब होने लगी। फिर, क्या ? जेब से पेसी निकालते हैं, हथेली पर चूना और ज़र्दा लेकर उन्हें अंगूठे से मसलते हैं। सुर्ती तैयार हो जाने के बाद, दूसरे हाथ से हथेली पर थप्पी लगाते हैं। फिर, उस सुर्ती की गोली बनाकर..फिल्म शोले के विलेन गब्बर सिंग की तरह गोली को मुंह में फेंककर, अपने होंठों के नीचे दबाते है। इस वक़्त मोहनजी ने हवलदार को “इन्स्पेक्टर” क्या कह दिया, जिससे हवलदार फूलकर कुप्पा हो गया। अब वह ख़ुश होकर, अपनी मूंछों पर ताव देने लगे। इतने में हवा चलने लगी, और हवा का झोंका मोहनजी के कपड़ो को छूकर....उन कपड़ो की गंध, हवलदार के नासा-छिद्रों तक पहुंचा देता है। फिर क्या ? कपड़ो में बसी दारु और ज़र्दे की असहनीय बदबू, से बेचारे हवलदार के लिए वह नाक़ाबिले बर्दाश्त होकर उसे बेहाल कर देती है। इस बदबू को बर्दाश्त न कर पाने से, वह अपने नाक के ऊपर रुमाल रखकर कहता है..]

हवलदार – [नाक पर रुमाल रखता हुआ, कहता है] – ठीक है, ठीक है। सुन ली, अब तेरी बकवास। अब मुंह से ज़र्दे के बरसात करनी बंद कर, पागल कहीं के। इतना सारा जर्दा होंठ के नीचे दबाते हैं, क्या ? आज़ रोटे गिटे नहीं, क्या ?

मोहनजी – सच्च कहा, इन्स्पेक्टर साहब आपने। रोटे गिटने, अभी बाकी है..अब इस सेमीनार में पहले जाकर खाना खा लेंगे, उसके बाद कर लेंगे फ़िज़ूल की बकवास..वेट के ऊपर।

हवलदार – [तुनक कर कहता है] – तू खाना खाने वाला है, कौन ? व्यापारी है, दुकानदार है या किसी दफ़्तर का मुलाजिम या अधिकारी ? बोल, आख़िर तू है कौन ?

मोहनजी – न तो मैं व्यापारी हूं, न मैं दुकानदार, और न मैं हूं छोटा कर्मचारी..मगर, मैं हूं अफ़सर कढ़ी खायोड़ा। यानि आप यों कह सकते हो, मैनेजर धान के कोठे का।

हवलदार – किस फेक्टरी के मैनेजर ? अरे यार। मेरे दिमाग़ में कुछ समझ में नहीं आ रहा है, तू क्या कह रहा है भाई ? [शर्माजी को आवाज़ देते हुए कहता है] अरे ओ शर्माजीसा, आप आकर इस माथा-खाऊ आदमी से बात कीजिये। इससे पूछताछ करनी, मेरे वश की बात नहीं।

शर्माजी – [वहीँ से ज़ोर से कहते हैं] – ऐसी क्या बात है, हवलदार साहब ?

हवलदार साहब – [ज़ोर से, बोलते हुए] – क्या करूँ, जनाब ? यहाँ तो तरह-तरह के व्यापारी आते हैं, देखिये जनाब यह आदमी किस कोठे के मैनेजर है ? समझ में नहीं आता, मुझे। आप यहीं आकर, बात कीजिये जनाब।

[शर्माजी और वर्माजी झट वहां आ जाते हैं, फिर शर्माजी बैग से आमंत्रित व्यापारियों की फ़ेहरिस्त निकालकर देखते हैं और मोहनजी से पूछताछ करते हैं।]

शर्माजी – [फ़ेहरिस्त देखते हुए, कहते हैं] – भाईसाहब, आपका नाम क्या है, आप कहाँ से पधारे हैं ? 

मोहनजी – मेरा नाम है, मोहन लाल कढ़ी खायोड़ा। अरे नहीं, जनाब..मैं तो हूँ मोहन लाल... मैं हूं, खारची डिपो का मैनेजर।

शर्माजी – [पूरी फ़ेहरिस्त का अवलोकन करके कहते हैं] – यह नाम, इस लिस्ट में कहीं दिया नहीं गया है। मेरी जानकारी के अनुसार खारची में ऐसी कोई फेक्टरी नहीं है, जिसके मैनेजर को मैं नहीं पहचानता..? क्योंकि जनाब, मैं ठहरा सेक्रेटरी व्यापारी मंडल का।

वर्माजी – भाई तू व्यापारी नहीं, दुकानदार नहीं और न तू मुझे व्यापारी लगता है..अरे भाई तू तो राज्य कर्मचारी भी नहीं हो सकता, अगर होता तो अपने साथ दफ़्तर का कोई काग़ज़-पत्र तो लेकर आता ?

मोहनजी – [रोनी आवाज़ में] – जनाब मैं बिल्कुल सच्च कह रहा हूं, वास्तव में.. मैं खारची डिपो का मैनेजर हूं। यदि आपको भरोसा नहीं हो तो, आप काकू को बुलाकर पूछ लीजिये।

[अब इस तरह अपनी इज़्ज़त के पलीते होते देखकर, मोहनजी को अपने ऊपर क्रोध आता है। वे सोचते हैं, क्यों नहीं..कल उन्होंने के.एल.काकू से, कोई आदेश लिया ? अगर ले लेते, तो आज इस तरह इन लोगों के सामने उनकी इज़्ज़त की बखिया नहीं उधेड़ी जाती ? इधर जनाब मोहनजी के पेट में पड़ी अफीम की किरचियां अपना रंग जमाने लगी, और उन्हें ज़ोरों की भूख लगाने लगी..और साथ में यहाँ रसोड़े में बन रहे पकवानों की सुगंध से, उनकी भूख बहुत बढ़ जाती है। अब उन्हें ऐसा लगता है, अगर अब इन्होने कुछ पेट में नहीं डाला तो भूख से तड़फती उनकी आंते कहीं बाहर न आ जाय ? अब बेचारे मोहनजी अपने पेट को दबाते हुए कहने लगे..]

मोहनजी – [पेट को दबाते हुए, कहते हैं] – आप मेरे ऊपर भरोसा कीजिये, मुझे आपके अधिकारी काकू ने भाषण देने के लिए बुलाया है। अगर आप खाना नहीं खिला सकते, तो कोई बात नहीं..मगर, आप उपस्थिति-पत्र तो दे दीजिये मुझे।

[बेचारे मोहनजी की बात सुनकर, वर्माजी और शर्माजी ज़ोरों से हंसने लगे। इस तरह अपनी मज़ाक उड़ती देखकर, बेचारे मोहनजी हाथ जोड़कर कहने लगे..]

मोहनजी – [हाथ जोड़कर कहते हैं] – आपको भरोसा न हो तो, काकू को बुलाकर पूछ लीजिये। अभी हो जाता है, दूध का दूध और पानी का पानी।

वर्माजी – देखिये शर्माजी, कही यह आदमी दूध वाला तो नहीं है ? अरे जनाब, आज़कल इन दूध वालों के पास बहुत रुपये-पैसे आ गए हैं। कीमती महंगे कपड़े तो पहन लेते हैं, जनाब। मगर रहन-सहन के कायदे कहाँ से सीखेंगे ? अरे जनाब, इसके वस्त्रों से सस्ती दारु की तेज़ बदबू आ रही है। साला सारे दिन दारु भी पीता है, वह भी सस्ती।

वर्माजी – बात तो आपकी सही है, तभी तो दारु के नशे में यह आदमी कभी हाथ जोड़ता है, तो कभी दबाता है अपना पेट। फिर कहिये जनाब, ऐसा आदमी और कौन हो सकते हैं ?

हवलदार – मुझे ऐसा लगता है जनाब, शायद इस आदमी को दिशा-मैदान जाना होगा ? अब आप कहिये, कोई समझदार आदमी इस तरह अपना पेट पकड़ता है क्या ? मुझे तो लगता है, इस आदमी के सर पर चढ़ गया है दारु का नशा। अब आप दोनों पधारो, आपका कभी ऐसे दारुखोरों से पाला नहीं पड़ा होगा ? मैं संभाल लूंगा, इसे।

[शर्माजी और वर्माजी, वहां से जाते हुए दिखायी देते हैं। रास्ते में शर्माजी को के.एल. साहब की कोई बात याद आ जाती है, अब वे वर्माजी से कहते हैं..]

शर्माजी – देखिये वर्माजी, हमारे इन्स्पेक्टर के.एल. साहब को उनके कई दोस्त काकू भी कहते हैं। हो सकता है, शायद यह आदमी सच्च ही बोल रहा हो ?

वर्माजी – [हंसते-हंसते जवाब देते हैं] – देखिये शर्माजी, अपुन लोगों को वही काम करने है..जो हमें सुपर्द किये गए हैं, शेष पचड़ो में फंसने की कहां ज़रूरत ? इन्स्पेक्टर साहब जाने, या इनके सरकारी कर्मचारी।

शर्माजी – सच्च कहा, आपने। अपुन तो ठहरे, व्यापारियों के नेता। जनाब, हम दोनों को ख़ाली अपना फ़ायदा देखना है। बस यहाँ इन व्यापारियों के बीच काम करके हमें अपनी अपनी नेतागिरी चमकानी है, और कभी काम पड़े तो चुनाव में इन सबके वोट एक मुश्त में अपुन पटका सकें।

[वर्माजी और शर्माजी बाते करते हुए, पांडाल की तरफ़ चले जाते हैं। उधर वह हवलदार मोहनजी का हाथ पकड़ लेता है। फिर उन्हें घसीटता हुआ मेन-गेट तक ले जाता है, फिर वहां उनका हाथ छोड़ देता है। फिर, हाथ जोड़कर कहता है..]

हवलदार – [हाथ जोड़कर कहता है] – मालिक, अब आप पधारिये। आपको दिशा-मैदान जाना है..[उंगली से लोड़ीया तालाब की पाळ की तरफ़, हाथ का इशारा करते हुए कहता है] वह है लोड़ीया तालाब की पाळ, वहां झाड़ियों के पीछे बैठकर आप निपट लो। इतने में, आपका नशा भी उतर जाएगा।

[थोड़ी देर बाद हाथ में बैग और ख़ाली टिफ़िन लिए हुए मोहनजी, लोड़ीया तालाब की पाळ [किनारे] पर चलते हुए दिखायी देते हैं। उनके जाने के बाद, हवलदार अपनी पुरानी बैठने की जगह पर चला आता है। अब वह वहां, वापस बीड़ी पीने बैठ जाता है। मंच की रौशनी, लुप्त होती है। थोड़ी देर बाद, मंच पुन: रोशन होता है। अब मोहनजी खुरिया रगड़ते हुए, लोड़ीया तालाब के किनारे चलते दिखायी दे रहे हैं। उनके पावों में असहनीय दर्द हो रहा है, इस कारण वे पांव रगड़ते हुए चलते जा रहे हैं। उनके पांवों की बहुत दुर्दशा हो चुकी है, यहीं कारण है इस वक़्त उनके पांव हरी-कीर्तन करते जा रहे हैं। उनको आते देखकर, वहां पाळ [किनारे] की झाड़ियों के पीछे बैठा एक फ़क़ीर झट लुंगी नीची करके उठ जाता है। फिर ख़ाली डब्बा लिए, वह मोहनजी के साथ चलने लगता है। इस वक़्त बेचारे मोहनजी, बांगड़ कॉलेज में हुए अपमान को भूल नहीं पा रहे हैं। दुःख के कारण वे, अपने ऊपर नियंत्रण खो चुके हैं। यही कारण है, वे इस वक़्त बड़बड़ाते हुए चल रहे हैं।]

मोहनजी – [बड़बड़ाते हुए] – मरो, सेल टेक्स वालों। भोज का निमंत्रण दिया, और खाना खिलाया नहीं तुम लोगों ने। ये सब सेल टेक्स वाले, नर्क में डालने योग्य है। बदमाश कढ़ी खायोड़ा सेल टेक्स वालों, तुम लोगों के पिछवाड़े में कीड़े पड़े। रे राम..मोहन प्यारे, रह गया भूखा।

फ़क़ीर बाबा - [मोहनजी के और नज़दीक आकर कहता है] – साहब तुम बिल्कुल सच्च बोलता है, एक मर्तबा मैं भी जीमण [भोज] की पंगत में बैठा था..तभी वहां एक सांड आ गया..

मोहनजी – क्या हो गया, बाबा ? सांड ने, सींग मार दिए क्या ?

फ़क़ीर बाबा – बच्चा बात यह नहीं हुई, हम उस सांड से बचने के लिए उठ गए..तभी बरतन मांजने वाली आयी, और हमारी थाली उठाकर मांजने के लिए ले गयी।

मोहनजी – फिर क्या हुआ, बाबा ?

फ़क़ीर बाबा – फिर, होना क्या ? लोगों ने वापस, मुझको पंगत में बैठने नहीं दिया। अरे बच्चे, इस तरह भूखा रह गया मैं।

मोहनजी – [हंसते हुए कहते हैं] – हैं..हैं हैं। [ठहाका लगते हैं] ऐसे कोई भूखा रहा जाता है, क्या ? फिर आप तो हो, फ़क़ीर बाबा। आपको कहाँ शर्म आती है, वापस पंगत में बैठने में ? झूठ मत बोलो, बाबा। आप भूखे रह नहीं सकते, वापस बैठ गए होंगे।

फ़क़ीर बाबा – [गुस्से में बकता है] – बच्चे, तू मेरी बात पूरी सुना कर। फिर, बोला कर। हुआ यों, जैसे ही मैं उठा और आ गयी कमबख्त बरतन उठाने वाली औरत। उस कमबख्त ने मेरी थाली उठा ली। फिर, ले गयी मांजने। हाय मालिक, हम तो सांड से बचने के लिए उठे थे..बस फिर, लोगों ने मुझको वापस बैठने ही नहीं दिया।

मोहनजी - मुझसे बेहतर, आपने क़िस्मत पायी है। कम से कम, आपने थाली के दर्शन तो किये हैं..मगर, मुझे तो कमबख्तों ने पंगत में भी बैठने नहीं दिया। गेट पर ही रोक लिया, अब भूखा मर रहा हूं..क्या करूँ अब..कढ़ी खायोड़ा ?

फ़क़ीर बाबा – वह मालिक है ना, सांतवे आसमान के ऊपर रहने वाला। वह सबको भूखा उठाता है, मगर भूखा सुलाता नहीं। मेरे साथ चल, तू भूखा नहीं रहेगा। मगर, तेरी टांगड़े लड़खड़ा क्यों रही है ? तेरी कमीज़ से दारु की बदबू क्यों आ रही है, बच्चे ? पहले यह बता, तू नशेड़ी है क्या ?  

मोहनजी – क्या पागलों जैसी बातें करते हो, बाबा ? मेरे जैसा शरीफ़ आदमी, कैसे नशेड़ी हो सकता है बाबा ? पहले आप खाना खिलाने की बातें करो, मेरे पेट में चूहे कूद रहे हैं। इधर टांगों में, भयंकर दर्द है। अरे रामसा पीर, इससे तो अच्छा है तू मुझे इस दुनिया से उठा लेता ? ए राम...मोहन प्यारे, तू तो रह गया भूखा। clip_image001

[बांगड़ कॉलेज में किस तरह, मोहनजी का अपमान हुआ..? वो पूरा वाकया, मोहनजी के मानस में चल-चित्र की तरह घुमने लगा। उसे किस्से को याद करते-करते, वे अपनी बदक़िस्मत पर रोने लगे। अब फ़क़ीर बाबा उनके सर पर हाथ रखकर, उन्हें दिलासा देते हुआ कहता है।]

फ़क़ीर बाबा – [मोहनजी का सर सहलाता हुआ] – बच्चा, फ़िक्र मत कर। मामा-भाणजू की दरगाह के सामने मेरी झोपड़ी है, तेरी चाची ने राम रसोड़े से खाना ले लिया होगा..? तू चल वहीँ, तूझे पकवान खिलाता हूं..आज सेठ मुकंदचन्द बालिया की बरसी है, राम रसोड़े में बहुत पकवान बने हैं।

मोहनजी – [आँखों से निकले अश्रु-बिन्दुओं को, रुमाल से साफ़ करते हुए कहते हैं] – चलता हूं, बाबा। चलता हूं।

[धर कूंचो धर मंजलो, चलते-चलते वे दोनों पहुंच जाते हैं बजरंग-बाग़ के पास। इस बगीचे में लगे पेड़ो को स्पर्श करते हुए हवा के झोंकें, इन दोनों के बदन को छूने लगे। यह दिल को लुभाने वाली ठंडी-ठंडी मादक लहरें, मोहनजी को छूकर आगे निकल जाती है। इन मादक लहरों के स्पर्श से, अफ़ीम अपना असर दिखाने लगती है। इस नशे में, मोहनजी की आँखे धीरे-धीरे भारी होती हुई महशूस होने लगती है..वे उनींदे होकर, आँखें झपकाते हुए चल रहे हैं। राह में आये पत्थर, कंकर वगैरा से ठोकरे खाते हुए, फ़क़ीर बाबा के कंधे पर हाथ रखकर चलते जा रहे हैं। उनके लड़खड़ाते पांवों की बहुत बुरी दशा बन चुकी है, मगर फ़क़ीर बाबा उनको राह के अवरोधों से बचाता जा रहा है..कहीं मोहनजी, ठोकर खाकर नीचे न गिर पड़े ? आज बांगड़ कॉलेज में बीती घटना को, वे भूल नहीं पा रहे हैं..बार-बार वह घटना इनके दिल में शूल की तरह चुभने का दर्द, महशूस करवा रही है। अब यह दिल का दर्द आंसूओं का रूप लेकर, आँखों से झरता जा रहा है। फिर, क्या ? इस दिल-ए-दर्द को याद करते हुए ग़मगीन मोहनजी, रोनी आवाज़ में दुःख से भरा गीत गाते चल रहे हैं।]

मोहनजी – [गीत गाते हुए] – मैं रोता चलूँ बादलों की तरह, न जाने क्यों फिर जलती ये दुनिया मुझे..पेट की आग में तन बदन जल गया। जल गया, जल गया..जल गया। ठंडी आहें भरूं जाने किसके लिए, पेट की आग में तन बदन जल गया। जल गया, जल गया..जल गया।

[इस दिल-ए-दर्द को रहम-दिल फ़क़ीर बाबा से, देखा कैसे जाता ? इस गम को भूलाने के लिए, फ़क़ीर बाबा झट..जेब से, देसी दारु का पव्वा निकालता हैं। फिर, वह दिलासा देता हुआ मोहनजीसे कहता है..]

फ़क़ीर बाबा – बच्चे, तूने इतनी तकलीफें देखी ? मालिक सब ठीक करेगा, अब तू फ़िक्र मत कर। मुझे पत्ता है, तू पीता ज़रूर है। अब यह ले बोतल, दो घूँट तू भी चढ़ा..अभी तेरे टांगड़े ठिकाने आते हैं। और निकल जाएगा, सारा दिल का दर्द।

[फ़क़ीर बाबा बोतल को, मोहनजी के लबों तक ले जाता है। मगर इधर मोहनजी को लगता है, के ‘जम्मू तवी एक्सप्रेस शीघ्र आने वाने वाली है।’ बस, वे झट अपना हाथ ऊंचा करते हैं। इस वक़्त हाथ में लगी घड़ी से उन्होंने, ऐसा समय क्यों देखा ? जिसके देखने के प्रयास से ही, फ़क़ीर बाबा के हाथ को ऐसा धक्का लगता है..बस, उनके हाथ में पकढ़ी हुई दारू की बोतल छिटक जाती है। मगर उसी वक़्त, दूसरे हाथ से फ़क़ीर बाबा बोतल को पकड़ लेता है। मगर दारु का नुक्सान होना था, वह तो होता ही है। उनकी सफारी कमीज़ के ऊपर, थोड़ा दारु छलक कर गिर जाता है। इस तरह हुए दारु के नुक्सान को, फ़क़ीर बाबा सहन नहीं कर पाता। और वह गुस्से में मोहनजी को, फटकारता हुआ कहता है..]

फ़क़ीर बाबा – [गुस्से में डांट पिलाता हुआ] – बरबाद कर दिए, दारु के चार घूँट ? तू जानता नहीं, दिन भर लोगों से भीख माँगी..फिर, उन पैसों से ख़रीदकर लाया यह दारु। तेरे को नहीं पीना था, तो पहले बोल देता।

[अब फ़क़ीर बाबा बोतल का ढक्कन बंद करता है, फिर उसे वापस जेब के हवाले करता है]

मोहनजी – आप जैसे फकीरों को सारे दिन दिखाई देती है, यह कमबख्त दारु। यहाँ इस घड़ी में बज गए हैं, पोने सात। अब तो बाबा, जम्मूतवी एक्सप्रेस के आगमन का वक़्त हो गया। अब यहाँ रुक गया, तो बाबा आपके साथ मुझे रात गुज़ारनी होगी। ना बाबा ना, मुझे नहीं रुकना। अब मैं जा रहा हूं, स्टेशन।

फ़क़ीर बाबा – तो क्या हो गया, बच्चा ? मालिक के नाम की जमेगी महफ़िल, तू गायेगा और मैं सुनूंगा। तू भूखा क्यों जाता है, बच्चा ? देख उधर, आ गया राम-रसोड़ा।

[राम-रसोड़ा आ जाता है, उसके बाहर पंगत में कई फ़क़ीर बैठे हैं। तरह-तरह के पकवानों की सुगंध फ़ैल रही है, मगर इन सब पकवानों की सुगंध का मोहनजी के लिए कोई महत्त्व नहीं। कारण यह है, इस वक़्त उनके दिल में मची हुई है, उतावली। के, ‘कितनी जल्दी वे पहुँच जाए स्टेशन।’ क्योंकि अब इस गाड़ी के चूक जाने के बाद, जोधपुर जाने के लिए फिर कोई गाड़ी नहीं मिलेगी। तभी उन्हें कोई दस क़दम आगे, २०-२२ साल की ख़ूबसूरत फैशनेबल लड़की चलती हुई दिखायी देती है। उस लड़की की ख़ूबसूरती पर कायल होकर, मोहनजी उसे टका-टक देखते जाते जाते हैं। इनकी यह हालत देखकर, फ़क़ीर बाबा हो जाता है नाराज़। वह उन्हें चेतावनी देता है। और उन्हें, डांट पिलाता हुआ कहता है..]

फ़क़ीर बाबा – [डांट पिलाता हुआ, कहता है] – उस कमलकी सांसण को, क्या देख रिया है ? निचोड़ लेगी, तूझे..! उसके चक्कर में पड़ गया, तो बच्चा ऊपर से खायेगा पुलिस के डंडे।

[मगर यहाँ सुने, कौन फ़क़ीर बाबा की सलाह ? मोहनजी जनाब तो उस लड़की से रेस लगाने के लिए, आमदा हो हो जाते हैं..के, कौन पहले स्टेशन पहुंचेगा ? बस वे तो झट फ़क़ीर बाबा को शुक्रिया अदा करते हुए, कहने लगे..]

मोहनजी – बाबा शुक्रिया, मैं तो जा रहा हूं रेलवे स्टेशन। अगर मैं नहीं गया, तो कढ़ी खायोड़ा..यह गाड़ी चूक जाऊंगा। फिर तो बाबा, मुझे पूरी रात आपके साथ काटनी होगी।

फ़क़ीर बाबा – बड़ी ख़ुशी की बात होगी, बच्चे। तगड़ी महफ़िल जमेगी, तू गायेगा और मैं सुनूंगा।

[यहाँ फ़क़ीर बाबा की राय, मोहनजी को कहाँ पसंद ? देरी होते देखकर, वे फ़क़ीर बाबा को टिल्ला मारकर आगे बढ़ जाते हैं। अब वे कमलकी से रेस लगाते जैसे आगे बढ़ने लगे, कभी वह कमलकी उनसे आगे रहती तो कभी मोहनजी उससे चार क़दम आगे आ जाते। और उधर टिल्ला खाकर फ़क़ीर बाबा नीचे गिरा था, वह उठता है। और मोहनजी को, अनाप-शनाप गालियां बकता हुआ थोड़ी दूर तक उनके पीछे दौड़ता है। मगर, वह उन्हें पकड़ नहीं पाता। तभी मंच के ऊपर, अन्धेरा छा जाता है। थोड़े वक़्त बाद, मंच पर रौशनी छा जाती है। पाली स्टेशन के प्लेटफोर्म संख्या एक का मंज़र, सामने दिखायी देता है। जम्मूतवी एक्सप्रेस प्लेटफोर्म पर ख़ड़ी है, इधर मोहनजी के आते ही वह गाड़ी प्लेटफोर्म छोड़ देती है। प्लेटफोर्म पर खड़े यात्री शोर मचाते हुए, दौड़कर जम्मूतवी एक्सप्रेस को पकड़ते हैं। यही हाल मोहनजी का रहा, वे भी दौड़कर चलती गाड़ी का हेंडल पकड़कर उसमें चढ़ते हैं। आज़ गाड़ी में कोई विशेष भीड़ नहीं है, मोहनजी को इस शयनान डब्बे में कई सीटें ख़ाली नज़र आ रही है। मोहनजी खिड़की के पास बैठने की फ़िराक में है, वे एक केबीन से दूसरे केबीन की तरफ़ जाते दिखायी देते हैं। तभी उन्हें एक ख़ाली केबीन दिखाई दे जाता है, जिसमें खाली एक ही यात्री है..जिसे वे पहचान जाते हैं, वह है जुलिट। उसके पास उसका नीले रंग का बैग रखा है, जिसमें कैम्प की आवश्यक दवाइयां रखी गयी है। मोहनजी उसके पास आकर बैठ जाते हैं, फिर वे उससे गुफ़्तगू करते हुए अपना वक़्त व्यतीत करते दिखायी देते हैं।]

मोहनजी – [जुलिट के पास बैठते हुए] – वाह, नर्स बहनजी सा। हमको तो बैठा दिया, बूथ पर। खुद न जाने, कहाँ चली गयी ? वापस भी नहीं आयी, आप ?

जुलिट – [लबों पर मुस्कान बिखेरती हुई कहती है] – हम क्या करें, मोहनजी ? बड़े साहब के आगे, हमारा कोई वश नहीं चलता। साहब ने कहा ‘गाड़ी खड़ी है बाहर, जाकर सिटी-डिस्पेंसरी से दवाइयां लेती आओ।’ क्या करें, मोहनजी ? शाम तक उलझा दिया, इस काम में।

[अब वह अपने पर्स से लिपस्टिक और कांच निकालकर अपना मेक-अप ठीक करती है। मोहनजी, उससे सवाल कर बैठते हैं।]

मोहनजी – फिर क्या हुआ, नर्स बहनजी ? आख़िर, यह गाड़ी मिली कैसे आपको ?

जुलिट – [लिपस्टिक और कांच को, वापस पर्स में रखती है] – जनाब, बहुत मुश्किल से यह गाड़ी पकड़ी है। बस, केवल दो मिनट पहले ही आयी थी प्लेटफोर्म पर।

[ललाट पर छाये पसीने के एक-एक कतरे को रुमाल से साफ़ करते हुए, वे आगे कहते हैं]

मोहनजी – ऐसा लगता है, आप तो आराम से रही है। मगर, मैं कैसे रहा ? या तो मेरा जीव जाने, या जाने मेरे रामा पीर।

[अब मोहनजी तसल्ली से बैठकर, जुलिट के सामने अपनी व्यथा सुनाते हैं। किस तरह उन्होंने कई कष्ट उठाये, और अब उनके पांवों में असहनीय दर्द उठ रहा है।]

मोहनजी – [नयनों से आंसू गिरते हैं, और वे आगे कहते हैं] – इस तरह इन बदमाशों ने मुझे गेट के अन्दर भी आने नहीं दिया, कैसे भाषण देता वेट के मुद्दे पर ? इसके विपरीत इन नालायकों ने मुझे भूखा रखकर, मेरा वेट गिरा दिया। भूख-प्यास से व्याकुल होकर, अब मैंने यह गाड़ी मैंने पकड़ी है। ए राम...अब तो मोहन प्यारे रह गया भूखा।

जुलिट – लगता है, आपकी तबीयत नासाज़ है ?

मोहनजी – आपने सच्च कहा, नर्स बहनजी सा। मगर, अब करूँ क्या ? इन घुटनों में असहनीय दर्द हो रहा है, [ऊपर देखते हुए] मेरे रामा पीर। इससे तो यह अच्छा यह है, तू मुझे मौत की नींद में सुला देता। इस भूख से तो अच्छी है मौत...क्या करूँ..? मोहन प्यारे रह गया भूखा।

[कॉलेज में हुए अपमान को याद करते हुए, मोहनजी रोते जा रहे हैं। और साथ में अपनी पूरी दास्तान, जुलिट को सुनाते-सुनाते वे अपनी पतलून की मोहरी ऊपर चढ़ाते जाते हैं। मोहरी ऊपर चढ़ाकर, अब वे अपने घुटने दबाने बैठ जाते हैं। अब डब्बे का दरवाज़ा दिखायी देता है, वहां फर्श के ऊपर एक फ़क़ीर सोता हुआ दिखायी दे रहा है। तभी पास के यूरीनल का दरवाज़ा खुलता है, और सौभाग मलसा बाहर आते हैं। सौभाग मलसा इधर-उधर निगाहें डालकर निश्चिन्त हो जाते हैं, के ‘इस वक़्त उनको कोई देख नहीं रहा है।’ निश्चिन्त होने के बाद, वे उस फ़क़ीर के निकट आते हैं। फिर उसे लात मारकर, जगा देते हैं। हड़बड़ाता हुआ, वह फ़क़ीर उठता है। अपने सामने, यमराज सरीखे सौभाग मलसा को खड़े पाकर, वह उन्हें हाथ जोड़ता है। फिर उनका हुक्म लेने के लिए, उनकी तरफ़ देखता है। सौभाग मलसा क्रोधित होकर, उससे कहते हैं..]

सौभाग मलसा – [क्रोधित होकर कहते हैं] – धंधे के वक़्त, गोमिया तू यहाँ आकर कैसे लेट गया ? धंधा करना नहीं है, क्या ?

[अब इस वक़्त सौभाग मलसा को, इस गोमिया से काम तो करवाना ही है। इस तरह क्रोधित होने से काम बनता नहीं, मगर बिगड़ता ज़रूर है। यह बात सौभाग मलसा को समझ में आ जाती है, वे अपनी जेब से बीस हज़ार रुपये का कीमती मोबाइल निकालकर उसे देते हैं। फिर, शांत होकर उसे कहते हैं.]

गोमियो – [मोबाइल लेता हुआ कहता है] - हुक्म कीजिये, जनाब। मुझे, क्या करना है ?

सौभाग मलसा – [शांत होकर कहते हैं] – देख गोमिया, यह बीस हज़ार रुपये का महँगा मोबाइल है। अब तू यों कर गोमिया, पड़ोस वाले केबीन में चला जा। वहां मोहनजी, जुलिट नर्स के पास बैठे हैं। वहां बड़े प्रेम से...

गोमिया – हुज़ूर मुझे भी प्रेम-भरी बातें करके, उस नर्स उस के साथ रोमांस करना है क्या ? ऐसी बात हो तो, मैं कपड़े बदलकर आ जाऊं ?

सौभाग मलसा – मूर्ख, कहाँ से आ गया तू मेरी गैंग में ? साला, कुछ समझता नहीं..? अब, सुन। वे जुलिट नर्स से बातें कर रहे हैं। तू ध्यान से देखना, वह जुलिट नर्स उनके घुटने मसल रही होगी ? बस अब तूझे, सावधान रहकर एक काम करना है।

गोमिया – फरमाइए, हुज़ूर।

सौभाग मलसा – बस तूझे वहां जाकर, ऊपर वाली पछीत पर कम्बल ओढ़कर लेट जाना है। फिर चुपके-चुपके उन दोनों की विडिओ फिल्म तैयार करनी है। उस फिल्म में यह मंज़र साफ़-साफ़ आ जाना चाहिए, के वे दोनों किस तरह प्रेम भरी बातें करते जा रहे हैं ? अब समझ गया, भंगार के खुरपे ?

गोमिया – मगर मोहनजी तो, आपके गाँव के दामाद है ना ? फिर ऐसी बदसलूकी उनके साथ क्यों ?        

सौभाग मलसा – तुम वही काम किया करो, जो तुम्हें सुपर्द किया गया है। बाकी मेरे ऊपर छोड़ दो। एक हिदायत दे दूं, तूझे। अपुन का जो गांजे का धंधा चलता है ना इस इलाके में, उसमें कोई किसी की रिश्तेदारी चलती नहीं है।

गोमिया – जनाब, फिर मैं क्या करूँ ?

सौभाग मलसा – उतावली क्यों करता जा रहा है ? सुन, थोड़ा वक़्त गुज़र जाने के बाद एक फैसन-परी आयेगी नीला बैग लेकर।

गोमिया – यह फैसन परी है, कौन ? कहाँ की है ?  

सौभाग मलसा – दूर हट, ऐसा बेवकूफ शामिल हो गया मेरी गैंग में। भूल गया, उस कमलकी सांसण को ? जो लिपस्टिक से लाल-पीला करती है, अपना मुंह। वह आयेगी, तेरे पास। तब तूझे..

गोमिया – फिर जनाब, आगे क्या ? उससे प्रेम-भरी बातें करके, मुझे भी रोमांस करना है ? जैसे बोलीवुड फिल्मों में दिखाया जाता है, जनाब।

सौभाग मलसा – पागल, तू मेरे कहाँ हाथ लग गया ? अब सुन, वह ख़ूबसूरत लड़की अपने साथ लाएगी नीला बैग। बैग को तेरे पास रखकर, वह चली जायेगी। वह बैग, तू मुझे स्टेशन के बाहर लाकर दे देगा। समझ गया, अब ?

[सौभाग मलसा को जय ‘रामजीसा’ कहकर, वह गोमिया मोहनजी के केबीन में चला आता है। वहां आकर वह जुलिट की सीट के ऊपर वाली पछीत पर कम्बल ओढ़कर लेट जाता है, फिर चुप-चाप, उन दोनों की विडिओ फिल्म बनाता जाता है। उन दोनों को, क्या पत्ता ? के, गोमिया उनकी वीडियो-फिल्म बनाता रहा है। जिस फिल्म में जुलिट मोहनजी के घुटनों पर मूव ट्यूब लगाकर मालिश कर रही है, और मोहनजी उससे प्रेम भरी बातें करते जा रहे हैं। इस तरह उन दोनों की फोटूओ के साथ-साथ, उनकी आवाज़ भी टेप हो जाती है। अब गाड़ी लूणी से आगे बढ़ गयी है, बिश्नोइयों के गाँव भी पीछे रह गए हैं। बाहर गहन अन्धकार छाया हुआ है, आमवस्या की रात है। गाँव के बाहर खड़ा सियारों का झुण्ड, मुंह ऊंचा किया हुआ ‘ऊ..ऊ..ऊ..’ की कूक लगाता जा रहा है। उस झुण्ड के कूकने की आवाज़, मोहनजी को बहुत अच्छी लगती है। इधर खिड़की से, ठंडी हवा का झोंका आता है। उसका अहसास पाकर, मोहनजी को कुछ गाने की इच्छा पैदा हो जाती है। अब वे हाथ ऊंचा करते हुए, उच्च सुर में गीत गाने लगते हैं..]

मोहनजी – [गीत गाते हुए] – लगा प्रीत का हाथ, हटाऊं कैसे। मेरा दरदवा ऐसा दिल का, छिपाऊं कैसे। ओ दरदवा दिल का ऐसा, इसे बताऊँ कैसे। लगा प्रीत का हाथ हटाऊं कैसे।

जुलिट – [वह उनका साथ देती हुई गाती है] – समझाऊं कैसे, लगा प्रीत का हाथ हटाऊं कैसे। यह नादान दिल का भोला, प्यार का मारा..इसे समझाऊं कैसे। लगा प्रीत का हाथ, हटाऊं कैसे।

[इंजन सीटी देता है, उसकी आवाज़ के आगे इन दोनों का गाया जा रहा गीत सुनायी नहीं दे रहा है। ये दोनों तो गीत गाने में इतने मसगूल थे, इनको पत्ता भी नहीं लगा..कब वह कमलकी, नीला बैग पछीत पर रखकर वापस चली गयी है ? तभी “भगत की कोठी” का स्टेशन आ जाता है, वंहा गाड़ी को सिंगनल नहीं मिलने से, वह वहां रुक जाती है। अब गोमिया लघु-शंका के कारण, परेशान हो जाता है। सौभाग मलसा पाख़ाने में थे, तब बेचारा गोमिया पेशाब करने जा नहीं पाया। फिर उसे सुपर्द कर दिया गया, विडिओ-फिल्म बनाने का काम। ज़्यादा वक़्त गुज़र जाने के बाद, अब वह लघु-शंका को रोक नहीं पाता। नाक़ाबिले-बर्दाश्त होने पर, वह उठता है, और अपने क़दम पाख़ाने की तरफ़ बढ़ा देता है। उसके उठते वक़्त, वह नीला बैग नीचे गिर जाता है। मोहनजी अपने जूत्ते ढूंढ़ते वक़्त, उस बैग को बेंच के नीचे खिसका देते हैं।]

मोहनजी - [जूत्ते अपने पांवों में डालते हुए] – नर्स बहनजी सा। मेरे घुटने बिल्कुल ठीक हो गए, अब तो मैं काठियावाड़ के घोड़ो की तरह दौड़ सकता हूं। लाइए, मूव ट्यूब। उसको हिफ़ाज़त से, आपके बैग में रख देता हूं।

[अब मोहनजी जुलिट से ट्यूब लेकर, उसे जुलिट के नीले बैग में रख देते हैं। उसके बाद उस बैग को रख देते है, पछीत के ऊपर।]

मोहनजी - नर्स बहनजी सा। अब आप आराम से, पांव सीधे करके बैठ जाइये। जोधपुर स्टेशन, आने वाला ही है। [उबासी खाते हुए, कहते हैं] अब तो घर जाकर ही खाना खाना है..मोहन प्यारे, रह गया भूखा।

[इतना कहकर मोहनजी बैठ जाते हैं, खिड़की के पास वाली सीट पर। वहां बैठे-बैठे, वे खिड़की से बाहर झांकते हैं। अब गाड़ी को सिंगनल मिल जाता है, वह आगे बढ़ती है। थोड़ी देर में ही, जोधपुर स्टेशन आ जाता है। गाड़ी प्लेटफोर्म नंबर एक पर रुकती है। जुलिट को अपना बैग दिखायी नहीं देता, वह मोहनजी को बैग खोजने का निवेदन करती है।]

जुलिट – [बैग खोजती हुई कहती है] – अरे कहाँ गया, मेरा बैग ? ओ मोहनजी ज़रा मेरा बैग देखिये ना, कहाँ रख दिया आपने ?

[मोहनजी तो ठहरे भुल्लकड़, बेचारे भूल गए..उन्होंने ट्यूब रखने के बाद, उस बैग को कहाँ रख दिया..? इधर-उधर खोजते-खोजते बेंच के नीचे देखते हैं, वहां उन्हें सौभाग मलसा का नीला बैग दिखाई दे जाता है। बस उसी को उठाकर, जुलिट को दे देते हैं। अब जुलिट उस बैग को लिए, गाड़ी से नीचे उतर जाती है। फिर वह बैग हाथ में लिए, अपने क़दम गेट की तरफ़ बढ़ा देती है। उसके पीछे-पीछे मोहनजी, भी अपना बैग और टिफ़िन लिए चलते दिखायी देते हैं। उनके जाने के बाद, पाख़ाने से गोमिया बाहर आता है। पछीत पर रखा जुलिट का नीला बैग लेकर, वह भी प्लेटफोर्म पर चला आता है। अब गोमिये के दिल में मचती है उतावली, के ‘कितना जल्दी इस बैग को ले जाकर, सौभाग मलसा को दे दूं।’ वह तेज़ी से गेट की तरफ़ बढ़ता है, मगर टिकट-कलेक्टर की नज़रों से वह बच नहीं पाता। उसे संदेह हो जाता है, कहीं यह गोमिया बिना टिकट यात्रा तो नहीं कर रहा था ? बस, फिर क्या ? वह भी तेज़ी से उसकी तरफ़, आवाज़ देता हुआ पीछा करता है। और दूसरी तरफ़ सवाई सिंहजी के पास तस्करी के माल इधर-उधर करने की ख़बर आ जाती है, उनकी नज़रों में यह दौड़ता हुआ गोमिया आ जाता है। फिर, क्या ? वे भी अपने कांस्टेबलों को लिए, उसका पीछा करते हैं। पीछा करते हुए पुलिस वाले, उसे ज़ोर से आवाज़ देते जाते हैं।]

पुलिस वाले – [ज़ोर से चिल्लाते हुए] – अरे रुक रे, कहाँ भागता जा रहा है ?

[गेट के पास हुड़दंग मच जाता है, उस शोर के आगे....इन पुलिस वालों की आवाज़, सुनायी नहीं देती है। मंच के ऊपर, अंधेरा छा जाता है।]

(क्रमशः अगले खंडों में जारी....)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: [मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित - खंड पांच
[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित - खंड पांच
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