जल तू जलाल तू - 6 // प्रकृति और जीव के अन्तःसम्बन्धों का सशक्त उपन्यास // प्रबोधकुमार गोविल

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जल तू जलाल तू प्रकृति और जीव के अन्तःसम्बन्धों का सशक्त उपन्यास प्रबोधकुमार गोविल अध्याय 1 | अध्याय 2 | अध्याय 3 | अध्याय 4 | अध्याय 5 ...

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जल तू जलाल तू

प्रकृति और जीव के अन्तःसम्बन्धों का सशक्त उपन्यास

प्रबोधकुमार गोविल


अध्याय 1 | अध्याय 2 | अध्याय 3 | अध्याय 4 | अध्याय 5 |

छह

वह बदला हुआ मौसम था। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। बफलो का तापमान शून्य से बहुत नीचे उतर गया था, ठीक वैसे ही, जैसे भारतीय बावड़ियों में घुमावदार सीढ़ियों से पानी लेने के लिए ग्रामीण उतरते चले जाते हैं। जैसे-जैसे धरती के गर्भ में कदम धँसते जाते हैं, ठंडक बढ़ती जाती है। नदी-सरोवर वहाँ बर्फ की सिल्लियों से ढँक-से गए थे। शालीन सफेदी ने सब्ज पत्तों के राग मन्द कर छोड़े थे। पेड़ों ने बहुरूपिया रूप धर लिए थे। आसमान धरती को पानी नहीं बर्फ परोस रहा था। सड़कों पे यायावर इने-गिने रह गए थे। सैलानी भी केवल जिगरवाले घूम रहे थे।

किन्जान और पेरिना डिनर के बाद डेला को उसके कमरे में भेजकर बिस्तर पर कागजों की छोटी-छोटी थैलियों को फैलाए बैठे थे। इन थैलियों में तरह-तरह के पन्ने जमा थे। पेरिना को ये बहुत प्रिय थे। उसका जी न इन्हें गिनकर भरता था, और न इन्हें देख-देखकर। पिछले कुछ दिनों से किन्जान के मन में यह विचार आने लगा था, कि वह भारत से ऐसे कीमती रत्न लाकर यहाँ उनका कारोबार करे। वह देख रहा था कि यहाँ लोग न केवल उन्हें पसन्द करते हैं, बल्कि उनके लिए अच्छी कीमत देने को भी तैयार रहते हैं। पेरिना इसे अपने शौक और किन्जान की कारोबारी नजर के योग के रूप में देखकर अत्यन्त प्रसन्न थी। पेरिना तो क्या, खुद किन्जान को भी यह पता न था, कि उसके अवचेतन में कहीं भारत देखने की इच्छा भी दबी है।

जब से उसने जेद्दाह से आए अपने मामा से अपनी माँ के पिछले जीवन के बारे में जाना था, वह अपने तार कहीं उस परिवेश से भी जुडे़ पाता था। उसकी दिलचस्पी अपनी माँ रस्बी के रसबानो और रसबाला रूप से परिचित होने में भी हो गई थी। अपनी जड़ों को भला कौन नहीं टटोलकर छूना चाहता? अचानक तेज हवा चलने लगी। किसी तूफान के आने से पहले की तीखी और सनसनाती हवा। ठंडक और भी बढ़ती जाती थी। थोड़ी ही देर में खबरों में किन्जान ने सुना, कि नायग्रा झरना जम गया है। इस कल्पना-मात्रा से ही रोमांच हो आता था, कि आसमान से जमीन पर छलाँग लगाता विराट सागर किसी तपस्वी की तरह हवा में समाधि ले ले। अतिवृष्टि का शिकार जलजला अचानक स्लो-मोशन में नर्तन करता हुआ पाषाण-पर्वत बन जाए।

उस रात नींद में किन्जान ने अपने को स्केटिंग करके बर्फ के झरने से नीचे आते कई बार देखा। वह हवा में उड़कर ऊपर जाता था, और फिर जमे हुए बर्फ के झरने से फिसलता हुआ नीचे आता था। उसे बच्चों की तरह इस खेल में मजा आ रहा था।

यहाँ तक कि सुबह जब कॉफी टेबल पर रखकर पेरिना उसे नींद से जगाने आई, तो वह अपने बेड से नीचे फिसलकर फर्श पर पड़ा मिला। उसे इस तरह जमीन पर बेसुध पड़ा देखकर पेरिना खिलखिलाकर हँसी। हँसती ही चली गई। ठंडी रात की गुनगुनी सुबह...ऐसी हजार रातें...ऐसे हजारों सवेरे...ऐसे हजार सपने...ऐसी हजार ख्वाहिशें...जिन्दगी की नाव को समय की लहरों पर खेते हुए...हँसी की इस मादक खनक ने डेला को भी जगा दिया, वह भी अपने कमरे से निकलकर आँखें मलते हुए चली आई और अपने पापा को फर्श पर पड़ा देख, अपनी मम्मी की खिलखिलाहट में शामिल हो गई... इतना भयंकर तूफान पिछले कई सालों से नहीं आया था। बफलो पर से तो इस तूफान ने केवल ठंडी कँटीली हवाओं के तीर छोडे़ थे लेकिन देश के और कई हिस्सों में इसने भीषण तबाही मचाई थी। नायग्रा झरना उस काँपती रात में ठिठुरकर रह गया था। बर्फीले अंधड़ के उन्मत विहार ने जगह-जगह जान-माल का नुकसान भी किया था। लोगों ने कई टूटे घरांदों के क्रूर चित्रा अखबारों में देखे। कई इलाके अन्धकार में डूब गए।

इस तूफान ने हजारों मील दूर म्याँमार में भी खलबली पैदा की। लोग यह जानकर सन्न रह गए कि अमेरिका में रह रहे वे नामी-गिरामी सन्तजी जिनके बरसों पुराने आश्रम को लोग पूजने की हद तक महान मानकर गौरवान्वित होते थे, इस क्रुद्ध जलजले का शिकार हो गए। पहाड़ी स्थान पर बना उस आश्रम का अहाता पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो गया। गिरी दीवारों और बिखरे असबाब के बीच इस आश्रम में रहनेवाले ‘बाबा’ जिनकी आयु सौ वर्ष से भी अधिक बताई जाती थी, न जाने कहाँ अन्तर्ध्यान हो गए। भारत और म्याँमार के साथ-साथ अमेरिका ने भी हताहतों को भारी राहत मुहैया कराई। इस बात पर भी कयासों और अटकलों का बाजार गर्म रहा, कि सन्तजी और वयोवृद्ध बाबा जीवित बचे या काल-कवलित हो गए। आश्रम की अकूत सम्पत्ति क्षत-विक्षत हो गई और उसे दूतावासों के जरिए सरकारी स्वामित्व में ले लिया गया।

कल तक लोगों को उनका भवितव्य बता रही जमीन आज अपने भवितव्य की सलामती की मुहताज हो गई।

पानियों में बहते डूबे किनारों को आँसुओं के साहिल देनेवालों में नार्वे की एमरा भी थी, वर्जीनिया की अगाथा भी, अजरबैजान की साँझा भी, और डेनमार्क का प्रिन्स भी।

जो बच न सका, वह तो बचा ही नहीं, जो बच गया, उसका कुछ न बचा।

सागर में इतनी ऊँची-ऊँची लहरें उठीं, कि नाराज होकर अगली सुबह मछलियों ने धूप की सूरत तक न देखी। गहरे पानी में छिपी रहीं।

ऐसा लगा, जैसे दुनिया के स्टीयरिंग पर बैठे खुदा को झपकी आ गई, और संसार की गाड़ी किसी गहरे गड्ढे पर जोर से उछल गई। लेकिन जैसे जंगल में मवेशियों का झुण्ड कोई मुसीबत टूट पड़ने पर अपने चरवाहे को भी बचाता है, वैसे ही, खुदा के ही कई बन्दों ने बढ़-चढ़कर खुदा की मदद की। उस रात की भी सुबह होकर रही।

किन्जान और पेरिना अखबार के पन्नों को छू-छूकर पश्चाताप करते रहे।

और याद करते रहे बरसों पहले गुजरी अपने हनीमून की रात... लेकिन जल्दी ही उस नशीली रात की याद की खुमारी उन्हें छोड़नी पड़ी, क्योंकि सामने कॉलेज से लौटी आदमकद बिटिया डेला जो खड़ी थी। उसे क्या मालूम कि तूफान की खबरों ने उसके माता-पिता के मानस-नगर के कौन-से चौराहे पर पुंगी बजा दी? वे आवाजें तो दोनों के अन्तःपुर में सोहर गा रही थीं, डेला को इससे क्या? तूफान की याद में कई खुशी के उत्सव निरस्त होने की खबरें अखबार में थीं, उन्हीं की तरह किन्जान और पेरिना ने भी अपने मन में खिले बाग निरस्त कर लिए... डेला को जब नाइजीरिया की एक कम्पनी में नौकरी मिली तो पहले पेरिना थोड़ा झिझकी, लेकिन जब उसे पता चला कि काम यहीं न्यूजर्सी में करना होगा तो उसकी चिन्ता दूर हो गई। और मुश्किल से तीन महीने गुजरे होंगे कि डेला ने उन्हें दूसरी राहत दी। वह वहीं अपने सहकर्मी वुडन रोज से शादी करके एक दिन उसे अपने साथ ले आई। किन्जान और पेरिना के लिए वह एक यादगार दिन था। उस दिन के आलम ने भी उनकी जिन्दगी की जिल्द पर सुनहरी इबारत लिखी। वक्त की कलम से घटनाओं के हर्फ लिखते चले जाने का नाम ही तो जिन्दगी है... लेकिन किन्जान और पेरिना के जीवन-पात्रा में फूलों का अर्क उस दिन भर गया, जब डेला ने दो जुड़वाँ बच्चियों को जन्म दिया। समय कितनी जल्दी बीतता है, इसका अन्दाज पेरिना को उस दिन हुआ, जब दोनों बच्चियों को लेकर वुडन और डेला एक दिन सचमुच नाइजीरिया चले गए।

किन्जान को जब भी अपने काम से फुर्सत मिलती वह और पेरिना बच्चों के पास नाइजीरिया जाने का प्लान बनाने लगते। लेकिन किन्जान को फुर्सत जैसे मिलती, वैसे ही फुर्र भी हो जाती। वे कभी बच्चों के पास जा ही नहीं पाते।

अलबत्ता बच्चे जरूर एक-दो बार उनके पास आकर रह गए।

ये प्लान बनाने और पूरा न कर पाने का सिलसिला तब जाकर टूटा, जब एक दिन डेला वहाँ आई, और बच्चों को बफलो में पेरिना और किन्जान के पास ही छोड़ गई। वुडन और डेला दोनों को ही अपने काम के सिलसिले में घूमना पड़ता था। बल्कि कुछ दिन बाद तो वे दोनों चाइना ही चले गए। पूरी तरह चाइना में शिफ्ट होने से पहले डेला किन्जान से वादा लेकर गई कि वे लोग कुछ दिन के लिए चाइना जरूर आएँगे।

इधर एक दिन एक करिश्मा हुआ। डेला जब बच्चों और माता-पिता से मिलने बफलो आई, तो उसने अपने सूटकेस से एक कीमती तोहफे की तरह निकालकर एक छोटी-सी पुरानी डायरी पेरिना को दी। पेरिना ने उसे उलट-पलटकर देखा और फिर डेला की ओर जिज्ञासा से देखने लगी। डेला से उस डायरी का राज सुनकर वह खुशी से उछल पड़ी। उसके हाथ से कपड़ों के वे पैकेट्स भी छूट गए जो डेला ने उसे और अपनी बेटियों को उपहार में लाकर दिए थे।

पेरिना उस डायरी को इस तरह सीने से लगाकर एकान्त में भागी, जैसे नवविवाहिताएँ अपने पीहर में पति का पहला पत्र आने के बाद उसे लेकर भागती हैं। इस तरह कि किसी को न दिखे, कि पत्र में क्या लिखा है, और सबको दिख जाए कि पत्र आया है।

डेला ने बताया कि काम के सिलसिले में वह जब चाइना गई, तो वहाँ उसने एक छोटे-से कस्बे में एक अजीबो-गरीब सेल देखी। इस सेल में एक पुराने-से मकान में ढेर सारा पुराना सामान रखकर एक बूढ़ा अपने दो-तीन साथियों के साथ बैठा था। वे लोग किसी म्यूजियम से तरह-तरह का सामान इकट्ठा करके लाए थे, और उसे बेच रहे थे। सामान में एक आश्रम, और उसके स्वामी के चित्र भी थे।

साथ ही इसे विश्व-प्रसिद्ध आश्रम का सामान बताकर बेचा जा रहा था। डेला को वह डायरी भी उसी सामान को उलटते-पलटते मिली... इस साधारण-सी डायरी को डेला ने आश्रम की म्यूजियम सेल में वैसे ही उठाकर देखा, और इसके पहले ही पृष्ठ पर खूबसूरत बारीक लिखावट में लिखा पाया - ”प्यारी पेरिना और उसके पति किन्जान के लिए...जो अपने हनीमून ट्रिप में भी समय निकालकर आश्रम देखने चले आए...‘एमरा’।“ इतना पढ़ लेने के बाद डेला के लिए ऐसा कोई कारण नहीं था कि वह उस डायरी को न खरीदे। उसने किसी कीमती तोहफे की भाँति उसे खरीद लिया। और वह डायरी, क्योंकि उसके माता-पिता के लिए थी, और इससे भी बढ़कर, वह उनके हनीमून ट्रिप से सम्बन्धित थी, डेला ने उसे पवित्र कुरान, बाइबिल या रामायण की तरह सहेजकर अपने पास रख लिया...उसका एक भी लफ्ज पढ़े बिना।

पेरिना ने उसे पढ़ना शुरू किया तो उसे दीन-दुनिया की कोई खबर न रही।

एमरा ने लिखा था कि उसने किन्जान और पेरिना का बरसों इन्तजार किया। उसे पूरी उम्मीद थी कि वह एक न एक दिन जरूर आएँगे। किन्जान को तो सन्तजी ने आने का आग्रह भी किया था, और यह कहा था कि वे उसके द्वारा पूछे गए सवाल का जवाब चौथी बार में देंगे। इसलिए वह उनकी प्रतीक्षा में थी।

लेकिन जब बहुत समय गुजर जाने के बाद भी वे लोग नहीं आए, तो वह उनके लिए चिन्तित भी थी। उसे लगता था कि कहीं उनके साथ कोई अनहोनी न घट गई हो।

एमरा ने लिखा था कि वह बाद में आश्रम के सारे नियम-कायदे तोड़कर ‘बाबा’ से भी मिली, केवल पेरिना की खातिर। इस बात का भी उसने खुलासा किया था कि हमेशा निर्वस्त्री रहनेवाले बाबा से मिलना निषिद्ध होने के बावजूद भी जाकर मिल लेने का उसे क्या दण्ड भुगतना पड़ा।

एमरा ने बाबा से केवल दो सवाल किए थे। एक तो यह कि उन्होंने किन्जान के पीछे दौड़कर उसकी जेब से मृत मछली क्यों व कैसे निकाली? दूसरे, वे किन्जान को देखकर ‘पन्ना-पन्ना’ क्यों चिल्लाए? बाबा ने सिर हिलाकर उसके दोनों ही प्रश्नों का उत्तर देने की स्वीकृति दे दी। इस बात से एमरा बेहद खुश हुई। उसे यह यकीन हो गया कि इस जानकारी से वह अपने मेहमानों की मदद कर पाएगी। कई महीनों तक उन दोनों के वहाँ न आने से एमरा थोड़ी-थोड़ी मायूस होने लगी थी। उसके बाद उसे यह खयाल आया कि वह ये सारी जानकारी लिखकर रख ले, ताकि लम्बा समय-अन्तराल हो जाने पर भी जानकारी सुरक्षित रहे, और कभी उन लोगों का पता-ठिकाना मिल जाने पर वह यह जानकारी उन तक पहुँचा भी सके। एमरा ने डायरी के अन्तिम पन्ने पर यह खुलासा भी किया था कि वह यह सब क्यों कर रही है? उसका पेरिना या किन्जान से यह लगाव किस कारण पैदा हुआ? एमरा ने लिखा था कि बाबा ने उसके प्रश्नों का उत्तर देने के लिए एक अजीबो-गरीब शर्त भी रख दी। बाबा ने उससे कहा कि वह एक चमड़े के हण्टर से बाबा को पूरी ताकत लगाकर मारे। और तब तक मारती रहे, जब तक कि बाबा का पूरा बदन लहूलुहान न हो जाए। बाबा का कहना था, कि यदि वह ऐसा न कर पाई तो उसके प्रश्नों के सही उत्तर नहीं मिलेंगे। बाबा ने उसका यह अनुरोध भी ठुकरा दिया कि वह हण्टर मारने के लिए आश्रम के किसी और कर्मचारी की सहायता ले ले... एमरा के पास अब बाबा की बात मानने के सिवा और कोई चारा न था।

उसकी आँखों में आँसू आ गए, जब उसने सौ वर्ष के जर्जर, कृशकाय और सन्त स्वभाव मनीषी पर चमड़े के हण्टर से लगातार पैशाचिक वार किए।

थोड़ी ही देर में खून के पतनाले उस बूढ़ी काया से झरने लगे। एमरा का दिल कहता था कि उसके हाथ से आज हत्या न हो जाए। लेकिन वह वर्षों से उस आश्रम में थी, बाबा के कई महिमामय क्रिया-कलापों के बारे में सुन चुकी थी, इसलिए बाबा का कहा मानने पर विवश थी।

सबसे बड़ी बात यह, कि वह किन्जान और पेरिना को लेकर अपने सवालों का सही खुलासा चाहती थी, जो बाबा का कहा मान लेने पर ही सम्भव था।

बाबा का मुँह खुला, लेकिन एमरा को एक अप्रत्याशित अनुभव देकर।

एमरा यह देखकर दंग रह गई कि पूरे शरीर से रक्त बहते हुए भी बाबा जैसे ही जमीन पर एमरा के सवालों का जवाब देने के लिए बैठे, उनका चेहरा असीम तेज से दमकने लगा। और सारे बदन पर न तो कोई चोट का निशान दिखाई दिया, और न ही एक भी कतरा खून का। एमरा की जान में जान आई, और वह तन्मय होकर सुनने लगी।

बाबा बोला, ”हवा में भटकती एक ‘आत्मा’ किन्जान को पिछले कुछ दिनों से अपनी गिरफ्त में लिए हुए थी। उसने एक छोटी मछली का रूप लेकर किन्जान के प्रभा-मण्डल में डेरा डाला हुआ था, अर्थात् वह पूरी कोशिश में थी कि वह उसके आसपास रहे।“ एमरा सपाट चेहरे से बाबा का मुँह देखने लगी। फिर साहस कर बोली, ”क्या यह आत्मा किसी को कोई नुकसान पहुँचा सकती थी? वह वास्तव में क्या थी? क्या यह किसी वायरल-इन्फेक्शन की तरह किसी शरीर में लग जाती है? क्या इसका सम्बन्ध किसी भौतिक घटना-दुर्घटना से है? क्या यह दुबारा जन्म लेने की कोई कोशिश थी? क्या ऐसी कोशिश कोई कर सकता है?“ बाबा जोर से हँसा। बोला, ”ये जीवन छोटा है, इसमें इतना जानने की कोई जरूरत नहीं। जब जीवन किसी के लिए शुरू होता है, तो उससे पहले उसे कुछ भी पता नहीं होता, कि पहले क्या था। न ये मालूम होता है कि बाद में क्या होगा।

लेकिन जैसे एक पात्र से दूसरे पात्र में डालते समय जल की कुछ बूँदें छलककर धरती पर गिर जाती हैं, वैसे ही जीवन न होने, होने और फिर न होने के क्रम में कभी कोई जान छिटककर जीवन चला रहे हाथों से गिरकर ओझल हो जाती है।

ठीक किसी पात्र से तड़पकर उछली हुई मछली की भाँति...“ ”अच्छा, बाबा ये बताइए, आप किन्जान को देखकर ‘पन्ना-पन्ना’ क्यों चिल्लाए थे?“ एमरा ने सवाल किया।

बाबा ने बताया, ”यह जो ‘प्राण’ किन्जान के साथ चिपककर सामने आया, यह पहले भी मेरी आँखों के सामने आ चुका था, इससे मैं इसे पहचान गया...“ एमरा अवाक् रह गई। उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं, उसके मुँह से यकायक बोल नहीं फूटा।

एमरा यह सुनते ही पसीने में नहा गई कि बाबा को किन्जान के माध्यम से दिखा ‘प्राण’ या ‘आत्मा’ उनके लिए पहले से परिचित है। बाबा के ‘पन्ना-पन्ना’ चिल्लाने का राज खुल जाने के बाद बाबा ने एमरा को बताया कि यह लगभग पिछले चार सौ साल से भटक रहा ‘प्राण’ है, जो बीच में एक बार कुछ समय के लिए दुबारा मानव-योनि में जीवन पा जाने के बावजूद शान्त नहीं हो सका, और पुनः भटकने के लिए विवश है।

बाबा बोला, ”मनुष्य अपने परिवार, अपनी जाति, अपने धर्म या समाज को लेकर जितना प्रमादी है, वह उतना ही दया का पात्रा है। वह नहीं जानता कि वह जिसे अपनी सामूहिक पहचान समझता है, उसका जीवन-चक्र में क्या हश्र होता है।

यह मनुष्य सोच भी नहीं पता। मनुष्य के पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि वह अपनी उत्पत्ति के कारण और प्रक्रिया को समझ सके। फिर भी वह अपने परिदृश्य को अन्तिम मानकर उसके लिए ताउम्र भ्रमित रहता है।“ बाबा ने आगे बताया, ”वर्षां पहले एक स्त्री के रूप में जन्म पाकर यह प्राण एक शासन-महल में दासी अथवा सेविका के रूप में जी रहा था। पन्ना इसका नाम था... ...एक दिन एक राजनैतिक उथल-पुथल के कारण कोई आक्रान्ता शासक एक बच्चे का वध करने नंगी तलवार हाथ में लिए उस महल में चला आया, जहाँ यह स्त्री सेविका के रूप में तैनात थी। राज्य का भावी राजा, उम्र में बहुत छोटा होने के कारण इसी दासी की देख-रेख में था। पैशाचिक मनोवृत्ति के उस आक्रान्ता आतताई ने भावी राजा का वध करना चाहा। जिस तरह उस आदमी पर हैवानियत हावी थी, उसी तरह इस दासी की प्रत्युत्पन्न-मति ने इसके हृदय में राजा के प्रति स्वामी-भक्ति की भावना उगा दी। राज्य के प्रति अपने कर्तव्य की सकारात्मक ज्वाला में तपकर इस स्त्री ने ‘न भूतो न भविष्यति’ निर्णय ले डाला। इसने एक बाँस की टोकरी में राज-पुत्र को छिपाकर महल से किसी के संरक्षण में बाहर भेज दिया, और उसके स्थान पर अपने स्वयं के पुत्र को वहाँ लिटा दिया। फलस्वरूप क्रुद्ध सेना-खलनायक की तलवार की धार से वह अबोध, निर्दोष, अपनी ही सगी माँ से तिरस्कृत बालक बेमौत मारा गया।“ घटना सुनाकर बाबा बाकायदा इस तरह रोने लगा, जैसे यह अपराध और विडम्बना, खुद उसी के करण घटित हुए हों। एमरा का चित्त भी गमगीन हो गया।

”बस, इसके बाद से यह ‘माँ’ अब तक अपने आपको भी यह नहीं समझा पाई कि यह उसने क्या किया? दुनिया का सबसे शक्तिशाली और पवित्र रिश्ता इस दृष्टांत के गुंजलक में अब तक भटक रहा है। जब अपनी जान पर खेलकर कोई हरिणी अपने शावक को सिंह के पंजों से छुड़ाने का असम्भव ख्वाब देखती है, तो यह दृष्टान्त उस सुनहरी केसरिया, इमली के आकारवाली छोटी मछली की तरह मानवता के साफ पानी को धुआँ छोड़कर मटमैला बना देता है। जब कोई चिड़िया अपने अण्डे बचाने के लिए जहरीले साँप से लोहा लेने की मुहिम पर निकलती है, तो यह दृष्टान्त उसके मनोबल को तोड़ने के लिए दुनिया में अँधेरा कर देता है।“ बाबा द्वारा एमरा के दोनों सवालों का जवाब दे दिए जाने के बावजूद हैरानी की आँधी एमरा के लिए थमी नहीं। बाबा ने पहले तो यह बताकर चौंकाया, कि यह भटकती आत्मा अब भी शान्त नहीं हुई है। और दूसरा इससे भी बड़ा झटका एमरा को यह जानकर लगा, कि इसी आत्मा ने कुछ वर्ष पूर्व किन्जान की माँ के रूप में धरती पर जन्म लिया था।

इस जानकारी से एमरा की आँखें एकबारगी खुली की खुली ही रह गईं, और अगले ही पल वह बेहोश हो गई। कुछ देर बाद आश्रम के बाहर और आसपास रहनेवाले सभी कुत्ते एक साथ, एक स्वर में रोने लगे।

इस आवाज को सुनकर आश्रम के मुख्य सन्तजी नंगे पैर बाबा के भूतल स्थित आवास की ओर दौड़े। आश्रम का सारा निजाम थोड़ी देर के लिए गड़बड़ा गया।

लड़खड़ाकर गिरते बाबा ने सेवकों के एक समूह से बुदबुदाकर सिर्फ इतना कहा, ”तुम लोग अब कहीं और चले जाना...यह आश्रम अब नहीं रहेगा...“ इतने में ही सन्तजी भी पहुँच गए और बाबा को सम्हालते-सम्हालते उन्होंने बाबा के आखिरी शब्द सुने...”जीवन में पहली बार औरत से बात करके मैंने अपना नियम तोड़ दिया है, मेरी सिद्धियाँ मेरा साथ छोड़ गईं, मुझे अब लौटना होगा...“ बाबा शान्ति से आँखें मींचे धराशाई हो गए। उन्होंने प्राण त्याग दिए।

कोमा की हद तक बेहोशी की हालत में चली गई एमरा को कई दिन बाद होश आया, जब तक बाबा की अन्त्येष्टि और सारे संस्कार सम्पन्न हो चुके थे।

बाबा के चले जाने के बाद अब वह जान पाई कि बाबा ने उससे मिलने की क्या कीमत चुकाई।

ऐसा कोई नहीं था जिसे एमरा बता पाती कि बचपन में उसका नाम एमरेल्ड ही था, जो बाद में एमरा रह गया। वह यह भी जान गई कि एमरेल्ड का अर्थ बाबा के देश में ‘पन्ना’ ही था। और यह सच भी वह अपने मन में छिपाए संन्यास की राह पर आई, कि उसने जीवन में कई बार विवाह किया, कई बार उसकी सन्तानें भी हुईं, लेकिन उसके भाग्य और स्वभाव ने हर बार उसे अकेला ही कर दिया। एक दिन सब-कुछ छोड़-छाड़कर वह बैरागन बन गई।

एमरा की इस पुरानी डायरी को पढ़ने के बाद पेरिना का दिल चाहा कि वह कम-से-कम एक बार किसी तरह एमरा से मिले, किन्तु इतने समय बाद, अब तो उसे यह भी पता नहीं था कि एमरा अब तक जीवित भी है या नहीं, और यदि है, तो वह कहाँ है।

पेरिना के यह सोचकर ही रोंगटे खड़े हो गए कि बाबा मरते समय आश्रम के न रहने की बात पहले ही कह गया था। जब उसने इस डायरी और आश्रम के बारे में किन्जान को बताया तो उसके दिल में भी यह सोचकर कसक उठी, कि उसे एक बार फिर जाकर बाबा से मिलना ही चाहिए था। लेकिन गया वक्त केवल अपनी याद ही वापस ला पाने की ताकत रखता है। वापस लौटना उसके वश में कहाँ? इस डायरी को पढ़ लेने का एक असर जरूर हुआ कि पेरिना डेला की बेटियों को अब अपनी आँखों से कभी दूर नहीं करती थी। औरतों से बात न करने के बाबा के दृष्टान्त ने पेरिना के मन में डेला और दोनों बच्चियों के प्रति एक अदृश्य ममता का स्रोत गहरा दिया था।

एमरा की डायरी को पढ़ने के बाद पेरिना ने अपने भीतर एक जबरदस्त बदलाव महसूस किया। कई प्रश्न उसके अन्तर्मन में धुआँ बनकर उठे और धीरे-धीरे सुलगने लगे। उसका जीवन बदलने लगा। अब वह अपना ज्यादा समय पढ़ने में ही बिताती, और न जाने कौन-कौन-सी किताबों में दिन-रात खोई रहती।

उसे यह बात झकझोरती थी, कि एक सिद्ध पुरुष स्त्री से जीवनभर बच के कैसे सिद्ध हो सकता है? क्या वह उस क्षण को भूल सकता है, जब दुनिया में उसका पदार्पण हुआ? क्या स्त्री से बचकर दुनिया में आने की कोई और राह भी है? स्त्री के शरीर में बनकर, उसके दर्द के सहारे दुनिया में आनेवाले उसकी अवहेलना कैसे कर सकते हैं? क्या यह निरा पाखण्ड नहीं है? कौन-सा ईश्वर है, जो किसी को ‘सिद्ध’ बनाने के लिए औरत से बचने की शर्त रखता है? यदि किसी देश-समाज में ऐसा कोई देवता है, तो उसके पास दुनिया चलाने के लिए स्त्री की भूमिका से बचने का कोई विकल्प है? डेला को यह आश्चर्य होता है कि माँ का अधिकांश समय अब शहर के पुस्तकालयों में ही बीतता है। वह न केवल नियमित लायब्रेरी जाती है, बल्कि बाजार में भी कपड़ों और ज्वैलरी से ज्यादा बुकस्टोर्स पर ही देखी जाती है। डेला की दोनों बेटियाँ सना और सिल्वा अपनी दादी के इस बदलाव को जब संजीदगी से लेतीं, तो डेला को भी यह लगता कि अब उनके पास रहने से बेटियों के कैरियर को लेकर उसे कोई चिन्ता नहीं रहेगी। वह कुछ दिन माँ, और बेटियों के साथ बिताकर वापस चाइना लौट जाती।

किन्जान को चीजों को जमा करने का शौक था, वह अब धीरे-धीरे कारोबार में बदलता हुआ, किसी खोज और अनुसन्धान में तब्दील हो गया। पेरिना के नए शौक ने उसमें पुरानी पुस्तकों का इजाफा भी कर दिया। किन्जान और पेरिना न जाने किस खोज में रहते? न जाने क्या ढूँढते? तेजी से युवा होती सना और सिल्वा भी अब इस वृद्ध दम्पति से मित्रवत हो चली थीं।

किन्जान का कारोबार भी अब पेरिना के हवाले होने लगा। क्योंकि किन्जान का अब बाहर जाना बहुत कम होता था, और पेरिना अपनी जिज्ञासा को लेकर न केवल व्यस्त रहती थी, बल्कि उसका घूमना भी ज्यादा होता। उसकी दिलचस्पी लगातार इस बात में होने लगी, कि स्त्रियों को लेकर दकियानूसी खयाल जिन देशों में भी हैं, वहाँ जाकर काम करे। कम-से-कम यह तो जाने कि जिन देशों और तबकों में स्त्री को समाप्त करने की वृत्ति है या उसे जकड़कर पिछड़ा बनाए रखने की जिद है, उन देशों के रहनुमाओं और आकाओं से यह तो जाने कि उनके पास वैकल्पिक जीवन का क्या रास्ता है? जीवन का क्या विकल्प है? जो लोग औरत को जन्म लेने से पहले ही उसके शरीर में ही खत्म कर देने के षड्यन्त्रों में जी रहे हैं, उनसे भावी समाज का उनका वांछित एक ब्ल्यू-प्रिन्ट तो लिया जाए।

लेकिन पेरिना की योजना एक बार खटाई में पड़ गई, क्योंकि उसके विचार केवल उसे मथ रहे थे।

विचार जब पकने लगते हैं, तो शरीर भी युवा होने लगता है। उम्र तब कोई खास माने नहीं रखती। यही कारण था कि जब डेला ने एक लम्बे पत्र द्वारा अपनी माँ पेरिना को उनके जल्दी शुरू होनेवाले एक मिशन के बारे में बताया तो वह उत्तेजित होने की हद तक खुशी से उछल पड़ी। सना और सिल्वा भी इस खबर से बहुत खुश हुईं, कि उनके मम्मी-पापा चाइना से एक खास मिशन पर यहाँ आ रहे हैं, और अब काफी दिनों तक अमेरिका में ही रहेंगे...किन्जान की आँखों में तो आँसू ही आ गए। इसलिए नहीं कि उसकी बेटी वापस आ रही थी, बल्कि इसलिए कि उसकी जिन्दगी की एक बन्द किताब के पन्ने फिर से खुलने के लिए फड़फड़ा रहे थे।

(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: जल तू जलाल तू - 6 // प्रकृति और जीव के अन्तःसम्बन्धों का सशक्त उपन्यास // प्रबोधकुमार गोविल
जल तू जलाल तू - 6 // प्रकृति और जीव के अन्तःसम्बन्धों का सशक्त उपन्यास // प्रबोधकुमार गोविल
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