[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। खंड 13 - लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित

SHARE:

[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित पिछले खंड - खंड 1 | खंड 2 | खंड 3 | खंड 4 | खंड 5 | खं...

[मारवाड़ का हिंदी नाटक]

यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है।

clip_image002

लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित

पिछले खंड -

खंड 1 | खंड 2 | खंड 3 | खंड 4 | खंड 5 | खंड 6 | खंड 7 | खंड 8 | खंड 9 | खंड 10 | खंड 11 | खंड 12 |


मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी - खंड १३

लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

[मंच रोशन होता है, जी.आर.पी. दफ़्तर का मंज़र सामने दिखाई देता है। मोहनजी बगीचे में विचरण कर रहे हैं। अब वे माली रूप चंदसा को बगीचे का काम करते देख, वे उनके नज़दीक जाते हैं। अभी इस वक़्त रूप चंदसा, बगीचे के पेड़-पौधो को पानी दे रहे हैं। उनके पास आकर, वे रूप चंदसा से कहते हैं]
मोहनजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – रूप चंदसा, यार कढ़ी खायोड़ा। बहुत अच्छा मनमोहक बगीचा लगाया है, आपने। यहां तो यार, मुझे बैठने की बहुत इच्छा होती है।

[ज़ेब से ज़र्दा निकालकर हथेली पर रखते हैं, फिर दूसरे हाथ से लगाते हैं फटकारा। फिर तैयार ज़र्दे को ठूंसते है, अपने होंठ के नीचे। ज़र्दा ठूंसने के बाद, वे रूप चंदसा से कुछ कहना चाहते हैं। मगर यहां जैसे ही ये मोहनजी कुछ बोलना चाहते हैं, और उनके मुंह खोलने के पहले ही रूप चंदसा दूर हट जाते हैं। यहां तो रूप चन्दसा बड़े होशियार निकले, वे पहले ही जान जाते हैं के मोहनजी अब बोलते वक़्त, उन पर अपने मुंह से ज़र्दा ज़रूर उछालेंगे।मगर यहां मोहनजी को, कोई फ़र्क पड़ने वाला नहीं। चाहे कोई भी उनके बारे में, कुछ भी सोचे ? वे तो बिना सोचे ही झट मुख खोलकर, कह देते हैं।]
मोहनजी – [मुंह से ज़र्दा उछालते हुए, कहते हैं] – ऐसा बगीचा तो आप मेरे बंगले में लगा दो, तो रूप चंदसा मज़ा आ जाय ?
रूप चंदसा – [थोड़ा दूर हटकर, कहते हैं] – साहब रहने दीजिये, यहां मेरे पास है बहुत काम। अरे जनाब, आप जानते नहीं ? मेरे पास, बिल्कुल भी वक़्त नहीं है..कभी तो बुला लेते हैं मुझे, कलेक्टर साहब। कभी बुला लेते हैं मुझे, रेलवे के कमिश्नर साहब। क्या करूं, जनाब ? आदमी एक हूं, मगर मुझे बुलाने वाले दस। किस-किस के पास जाकर, उनकी ख़िदमत करूँ ?
मोहनजी – देखिये रूप चंदसा, कढ़ी खायोड़ा। मैं आपसे यह कह रहा था...
रूप चंदसा – [बात काटते हुए, कहते हैं] - देखो सा। आप मुझे कढ़ी खायोड़ा मत कहा करें, जनाब मैं कढ़ी की सब्जी खाकर नहीं आया हूं। मैं तो कांदे की सब्जी ठोककर आया हूं। कल ही मैं परिहार नगर गया था, वहां मेरे काकी ससुरसा का मकान है...
मोहनजी – [बात काटते हुए कहते हुए, कहते हैं] – देखिये रूप चंदसा, कढ़ी खायोड़ा। मैं आपसे यह कह रहा था...
रूप चन्दसा – [बात काटते हुए कहते हैं] – मुझे बार-बार आप कढ़ी खायोड़ा मत कहा करो, एक बार और कह देता हूं के ‘मैं कढ़ी की सब्जी खाकर नहीं आया हूं। मैं तो जनाब, कांदे की सब्जी ठोककर आया हूं।’ अब पूरी बात सुनो..

मोहनजी – कहिये, आगे।

रूप चंदसा - काकी ससुरसा के यहां क्या बढ़िया बगीचा लगाया..[थूथका न्हाखते हुए कहते हैं] थू थू..मेरी नज़र न लग जाये, हुज़ूर मैंने कल देखा ‘क्या कांदे लगे हुए थे उनके बगीचे में..?’
[इतना कहकर, रूप चन्दसा जाकर नल की टोंटी बंद करते हैं। फिर बोक्स खोलकर खुरपी निकालते हैं, अब वे क्यारियों में खुरपी देते हुए मोहनजी से कहते हैं]
रूप चंदसा – [खुरपी देते हुए, कहते हैं] – मैं जब रवाना होने लगा, तब काकी ससुरसा ने ज़बरदस्ती मेरी थैली में पांच किलो देशी कांदे डाल दिए। और कहा ‘पावणा, कांदा रोज़ खाया करो, इससे लू नहीं लगेगी।’ आज़ भी घर वाली ने कांदे की सब्जी बनायी, जो मैं ठोककर आया हूं। मोहनजी, आप कांदे की सब्जी क्यों नहीं खाते ?
मोहनजी – रूप चंदसा, कढ़ी खायोड़ा। मैं तो रोज़ खाना चाहता हूं, देशी कांदे की सब्जी।
रूप चंदसा – एक बार और कह दिया आपने मुझे, कढ़ी खायोड़ा ? आपको कितनी बार समझाऊं के ‘मैं कढ़ी की सब्जी खाकर नहीं आया हूं, बल्कि मैं देशी कांदे की सब्जी ठोककर आया हूं।’
मोहनजी – माफ़ कीजिये, अब आगे से मैं आपको पावणा कहकर ही बतालाउंगा। क्योंकि, आप हमारे मोहल्ले के दामाद हैं। अब आप जब-जब ससुराल आओ तब आप, मेरे ग़रीब-खाने ज़रूर पधारें। और आकर, बगीचा-वगीचा ज़रूर लगाएं। मेरे बगीचे में भी कांदे..
रूप चंदसा – अरे ससुरसा, पावणा तो मेहमान होते हैं। उनसे क्या काम लेते हो, जनाब ? उनको, आदर से बैठाया जाता है। पावणा आते हैं तब, बाज़ार से मिठाई मंगवाकर उनको खिलाई जाती है..और आप मुझे बगीचा लगाने की बात, क्यों कहते जा रहे हैं ?
[रूप चंदसा बेचारे, ऐसे क्या बोले ? गलियारे में राउंड काट रहे ओमजी उनकी बात सुनकर खिल-खिलाकर ज़ोर से हंसते हैं। इतने में रतनजी आकर, बड़े की प्लेटें ओमजी को देकर चले जाते हैं। फिर क्या ? ओमजी बड़े की प्लेटें लेकर, मोहनजी और रूप चंदसा के निकट आकर कहते हैं]
ओमजी – [निकट आकर, कहते हैं] – मिठाई मंगवाने की बात मत कीजिये, रूप चंदसा। अरे जनाब, आप जानते नहीं..ख़र्च करने की बात करने पर, मोहनजी भाग जायेंगे। ये कोसों दूर रहते हैं, खर्चे से।
[बड़ों से भरी दो प्लेटें मोहनजी को थमाकर, कहते हैं]
ओमजी – [बड़े से भरी प्लेटें थमाते हुए, कहते हैं] – ये लीजिये जनाब, बड़े से भरी प्लेटें। अब आप इन राउंड काटने वाले सिपाईयों को थमा दीजिये, मगर एक हिदायत आपको दे देता हूं..इन बड़ों को खाना तो दूर, आपको चखना भी नहीं है। अगर खा लिए बड़े, तो आपके लिए ये बड़े तकलीफ़देह रहेंगे। एक बार खरा-खराकर कह देता हूं, आपको।
रूप चंदसा – ठीक कह रहे हैं, ओमजी। [मोहनजी से कहते हैं] अब आपको बड़े नहीं खाने है, तो यह एक प्लेट मुझे थमा दीजिये।
मोहनजी – [नखरा करते हुए, कहते हैं] – उंहूं ऊंऽऽऽ हूंऽऽऽ..ना भाई ना। पहले आप काकी ससुरजी से, पांच किलो देशी कांदे लाने का वादा कीजिये। फिर आपको, भर-पेट बड़े खाने को दूंगा।
रूप चंदसा – [हंसते-हंसते कहते हैं] – ऐसी सस्ती चीज़ क्या मंगवाते हो, यार मोहनजी ? [ज़ोर से छींक खाते है] अैऽऽ छीऽऽ छीऽऽ... ऐसा कहकर जनाब, आपने अपना मुंह ख़राब किया।

मोहनजी – फिर, क्या मंगवाऊ यार ?

रूप चंदसा – हुज़ूर, मैं यह कह रहा था कि, ‘जनाबे आली आप मिठाई मंगवाते, ये कांदे तो आप घर जाते वक़्त...काकी ससुरजी की दुकान से, ख़रीद लेते।’ जानते हैं, आप ? हनुमानजी के मंदिर से सटी हुई, उनकी दुकान है..सब्जी की।
मोहनजी – [मन में धमीड़ा लेते हुए, कहते हैं] – अरे मेरे रामसा पीर। ये रूप चंदसा तो मेरे उस्ताद निकले। लेने में राज़ी, और देने में रामजी का नाम। बराबर यह कढ़ी खायोड़ा, बिल्कुल है मेरे जैसा।
[अचानक उनकी निग़ाह उतरीय पुल से उतरते हुए, एक सज्जन पर गिरती है। वे सज्जन, इनके जान-पहचान वाले लगते हैं। उनको देखते ही, वे उन्हें आवाज़ देते हुए उनके सामने जाते हैं]
मोहनजी – [आवाज़ देते हुए, उनके सामने जाते हैं] – ओ पुरोहितजी सरदार..ओ पुरोहितजी सरदार। इधर आइये, मालिक। मैं एफ़.सी.आई. का मोहन लाल बोल रहा हूं।
[ये सज्जन, जोधपुर एफ.सी.आई. डिपो के मैनेजर “आनंदजी पुरोहित” हैं। इनकी आदतों के कारण इनके विभाग वाले इनको “चलता फिरता दफ़्तर” कहते हैं। ये जनाब कभी सुबह से लेकर शाम तक दफ़्तर में नहीं बैठते। भूल-चूक से कोई दफ़्तर का मुलाजिम या कोई इनका मिलने वाला, कहीं मिल जाए और कह दे इनको के “जनाब, आज़ आप दफ़्तर में मिल जायेंगे ?” सुनकर पुरोहितजी ज़ेब में हाथ डालकर गुलाब का इत्र लगा रुमाल निकालकर मुंह के पास ले जायेंगे, फिर जनाब बहुत गंभीर होकर यह कहेंगे के “अरे यार, आज़ तो आप बिल्कुल मत आओ दफ़्तर। मैं वहां बैठा मिलूंगा नहीं, ख़ाली आप गौते खायेंगे। अरे जनाब, कैसे समझाऊं आपको ? आज़ तो मालिक, जीजी ने अनाज की रिपोर्ट लेकर बुलाया है। आप नहीं जानते, अभी चल रहा है विधानसभा सत्र। यों ही गौते खाओगे, वहां आकर।” अब आपको यह बताएं, ये “जीजी” है कौन ? यह मोहतरमा है, जिला जोधपुर सूर-सागर इलाके की एम.एल.ए. सूर्य कांताजी व्यास। इनको पुष्करणा ब्राह्मण न्यात में, “जीजी” के नाम से बतलाया करते हैं। और आनंदजी पुरोहित है, इनके दामाद। वह भी, मुंहलगे। ऐसा कोई काम नहीं आया इनके सामने, जिसे वे अपनी सासजी से न करा पाए। मुलाज़िमों की बदलियां करवाने का लेखा-जोखा, प्राय: इनके बैग में रहता है। जिले को छोड़िये, ये तो जिले के बाहर कर्मचारियों की बदलियां कराने के मेटर भी अपने पास रखते हैं। इनको मुंह पर याद है..कितनी पोस्टें भरी हुई है, और कितनी ख़ाली है ? भरी हुई पोस्टों पर कौन बिराज़मान है, और वे बिराज़मान आदमी अपने पीछे किस एम.एल.ए. या एम.पी. का हाथ रखते हैं ? यह पूरी रिपोर्ट, इनके पास रहती है। अपने मोहनजी अपनी इच्छा से, जोधपुर से बदली करवाकर खारची पधारे हैं। अब वे बदली करवाकर पछता रहे हैं, के ‘क्यों उन्होंने ख़ुद की इच्छा के आधार पर, अपना स्थानान्तरण करवाया ?’ ऐसे वक़्त आशा के दीप की तरह पुरोहितजी सरदार का दीदार होना, इनके लिए एक ख़ुश-ख़बरी है। अब उनको देखते ही, उन्होंने पुरोहितजी सरदार को आवाज़ दी है। आनंदजी पुरोहित का आगमन होता है। पुरोहितजी को देखते ही सारे हवलदार, सावधान की मुद्रा में आ जाते हैं। ऐसा लगता है, कोई बड़े रसूख़दार मुअज्ज़म तशरीफ़ लाये हैं। मोहनजी कुर्सी लाकर, इनको बैठाते हैं। और उनके पहलू में रखी कुर्सी पर, वे ख़ुद बैठ जाते हैं। फिर एक दाल के बड़ो की प्लेट उनको थमाते हैं, और दूसरी ख़ुद लेकर बड़े खाने शुरू करते हैं। और इस तरह भूल जाते हैं, ओमजी की दी गयी चेतावनी।]
मोहनजी – [दाल के बड़ो की प्लेट थमाते हुए, कहते हैं] – लीजिये भा’सा, आपके मनपसंद दाल के बड़े। अरोगिये जनाब, कहीं ठंडे न हो जाय ? अब खाने में, देर न कीजिये।
[मोहनजी और पुरोहितजी, गरमा-गरम दाल के बड़े खाते दिखाई देते हैं। और उधर रशीद भाई, दफ़्तर के पास खड़े सिपाईयों को ठंडा पानी पिलाते जा रहे हैं। अब दाल के बड़ो के साथ सबको, सुगन्धित ठंडा-ठंडा जल पीने की तलब बढ़ती जा रही है। वे सभी बार-बार, उस ठंडे जल को पीते जा रहे हैं। फिर भी, उनकी प्यास मिटने का कोई सवाल नहीं ? उधर मोहनजी, पुरोहितजी से वार्तालाप करते दिखायी दे रहे हैं।]
मोहनजी – यार भा’सा, अपने साथियों को कैसे भूल गए हैं ? लम्बे समय तक साथ रहे हैं, जनाब। कभी ख़त न लिखो, तो कम से कम फ़ोन..
पुरोहितजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए कहते हैं] – प्रिंस। अब तू झूठा मोह दिखला मत, काम की बात कर। तू मुझसे क्या चाहता है, वह बात कर। तूझे आज़ पहली बार नहीं देखा है, मैंने। मैं तेरी एक-एक रग से, वाक़िफ़ हूं। बिना मतलब, तू किसी को बुलाता नहीं..इतनी मनुआर करके। तू तो ऐसा कमबख़्त है, जो घर पर मौजूद होने के बाद भी फ़ोन पर कहला देता है के तू घर में नहीं है।
मोहनजी – [उनके पांव दबाते हुए, कहते हैं] – अरे भा’सा, यों काहे नाराज़ हो रहे हैं आप ? मेरा मफ़हूम यह नहीं है, फिर आप हुक्म करते हैं तो मैं अपनी समस्या आपके सामने रख देता हूं। के, ‘अपनी इच्छा से बदली करवाकर खारची आया..मगर, यहां खारची में आकर मैंने बहुत तक़लीफ़ें देखी है। देखिये जनाब, सुबह सुबह..’
पुरोहितजी – [पांव छुड़ाते हुए, कहते हैं] – ले छोड़, मेरे पांव। ले देख अब तू आ गया है, मतलब की बात पर ? अब तू मेरी बात सुन, तेरे..
मोहनजी – [बीच में बोलते हैं] – अरे जनाब, पहले आप मेरी बात सुनिए। सुबह-सुबह पकड़ता हूं, सात बजे रवाना होने वाली अजमेर जाने वाली गाड़ी। और जनाब, खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं।
[अब मोहनजी ग़मगीन हो जाते हैं, ग़मज़दा मोहनजी एक गम भरी नज़्म सुनाते हैं]
मोहनजी – [नज़्म सुनाते हैं] – “छोटा तकां सूं किलो देखतां आदत पड़गी, पण दो टका कमावण सारुं इण आदत में बाधा पड़गी। सिंजारा गाड़ी सूं आवूं जद निरो इंदारो पड़ जावै। भगत री कोठी सूं देखूं, पण किलो नज़र नी आवै। घरै पूगू जद गीगा-गीगी, साम्है आय लिपट जावै। गाड़ी में पोंछू जा पैली, पण जगा हाथ नी आवै। ऊबौ-ऊबौ आवूं जावूं पग नैरा दुकाऊ। कैवूं पुरोहितजी आज़ थान्नै, आऊंड़ा ढळका नै। बदली करवा दौ म्हारी, बाबो भली करेला।”
पुरोहितजी – [गुस्से में कहते हैं] – तेरे लक्षण तो ऐसे है, के तूझे दो झापड़ मारूं खींचकर। करम फूटोड़ा...तेरी कोई मदद करनी चाहता भी हो, तो भी वह मदद नहीं कर सकता।
[मोहनजी रोनी सूरत बनकर, सीधे-सादे भोले आदमी की तरह अपने दोनों कान पकड़कर कहते हैं]
मोहनजी – [कान पकड़कर कहते हैं] – भा’सा, ऐसा क्या गुनाह हो गया मुझसे ? आख़िर इंसान हूं, कहीं ग़लती हो गयी हो तो मैं माफ़ी मांगता हूं..माफ़ कीजिये, मुझे।
पुरोहितजी – मैं तो तूझे माफ़ दूंगा, मगर गधे तूने तो उस यूनियन के सचिव को नाराज़ कर डाला। तूने बिना टिकट लगा लिफाफा भेज दिया, उसको ? अब तू चाहता है, वह सचिव अब तेरी मदद करेगा ? तू तो बड़ा होशियार निकला, उस बेचारे के लगवा दिया डबल चार्ज। अब तू कहता है, तेरी बदली कराने का कहूं उसे ?
मोहनजी – भा’सा, इसमें मेरा क्या दोष ? मैं ठहरा, नादान। यही समझा मैंने, जनाब। अगर चिट्ठी बेरंग भेजी जाय, तो ज़रूर सचिव महोदय को मिल जायेगी। और अपना काम, मिनटों में हो जाएगा।
पुरोहितजी – मिनटों में ज़रूर होगा, मोहनिया...मिस्टर प्रिंस, तूझे भेज देंगे पंजाब या कश्मीर। फिर पूरी नौकरी में तू वापस आ नहीं पायेगा, जोधपुर। बाद में जोधपुर के लिए तरसेगा, मूर्ख। काम करता है, उल्टे, अपनी आदत से बाज़ नहीं आता।
[मोहनजी अपनी ऐसी रोनी सूरत बना देते हैं, मानो किसी ने उनके रुख़सारों पर धब्बीड़ करते कई थप्पड़ जमा दिये हो ? अब पुरोहितजी, उनको दिलासा देते हुए कहते हैं]
पुरोहितजी – गेलसफ़ा, तूझे क्या पता ? बड़ी मुश्किल से हाथा-जोड़ी करके उस सचिव को मनाया मैंने। करें भी, क्या ? आख़िर तू मेरे साथ रहा हुआ है, यार। इतना तो करना ही पड़ता है तेरे लिए, चाहे तू कभी मेरा मुंह मीठा करता नहीं।
मोहनजी – मीठा मुंह क्यों नहीं कराऊंगा, भा’सा ? [खाने का टिफ़िन खोलते हुए कहते हैं] आपका मुंह भर दूं, लापसी से। आप भी मुझे क्या याद रखेंगे, भा’सा ? [टिफ़िन में रखी लापसी दिखलाते हैं] मेरे जैसा कढ़ी खायोड़ा, पैसे ख़र्च करने वाला आदमी आपको मिला। कहिये जनाब, क्या कहना है आपका ?
पुरोहितजी – [मुंह बिगाड़कर कहते हैं] – मुंह मीठा, वह भी इस वासती बासी लापसी से ? जैसा तू है, वैसे ही तेरे विचार है। मिस्टर प्रिंस, यू आर ऑफिसर ओफ एफ.सी.आई.। तुम गांव के मोथे नहीं हो, क्या समझे मिस्टर प्रिंस ?
[अचानक, पुरोहितजी के पेट में दर्द उठने लगता है। वे कराहते हुए, पेट को दबाते जा रहे हैं। अब पेट में मरोड़े [एठन] ऐसे चलते हैं, जिससे बेचारे पुरोहितजी का मुंह उतर जाता है। अब यह दर्द नाक़ाबिले बर्दाश्त हो जाता है, जिससे बेचारे ज़ोर से कराहते जा रहे हैं। उनकी ऐसी स्थिति देखकर, पास खड़े पुलिस के सिपाही इधर-उधर दौड़कर आते-जाते हैं। कोई उनके लिए पानी ला रहा है, तो कोई उनके लिए लोंग-सुपारी इलायची। इस तरह वहां ख़लबली मच जाती है।]
पुरोहितजी – [पेट की पीड़ा सहन करते हुए, कराहते कहते हैं] – अरे मेरी मांsss, यह कैसा पेट में जान-लेवा दर्द हो रहा है रेsss आss..हाss..?
[जी मचलता है, झट उठते हैं और कोने में जाकर उल्टी करते हैं। फिर एक बार नहीं, कई बार वोमिटिंग होती है। हवलदार दौड़कर पानी लाता है, और उन्हें पानी के कुल्ले करवाता है। यह मंज़र देख़ता हुआ एक हवलदार परेशान होकर, पास खड़े अपने साथी दूसरे हवलदार से कहता है]
एक हवलदार – [दूसरे हवलदार से कहता है] – मुझे बहुत बुरा लग रहा है, भाई। आज़ सवाई सिंहजी, जनाबे आली मोहनजी को यहां लाये ही क्यों ? ये जनाब मोहनजी न होकर, वास्तव में अघोरमलसा है। ये जहां भी बैठते हैं, वहां गन्दगी अपने-आप फैल जाती है।
दूसरा हवलदार – भाई कचोरी लाल देण तो अब होगी, जब जीजी यहां आकर धरने पर बैठ जायेगी। अभी हम लोगों की किस्मत ही खोटी है, यार। थार एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाने के लिए, जीजी अभी स्टेशन पर ही आयी हुई है।
कचोरी लाल – [भयभीत होकर कहता है] – कैसे भी..यार रूप लाल, तू कुछ कर। लिम्का लाकर, पीला दे भा’सा को। इस तरह, अपनी टोपी सलामत रह जाएगी। जा, जल्दी भाग यहां से ..और, जल्दी ला लिम्का।
रूप लाल – मैं कुछ नहीं कर सकता, कचोरी लाल। तू ही कुछ कर, मेरे भाई। कुछ नहीं.., तो जाकर साहब को इतला कर, भा’सा की तबीयत ख़राब होने की।
[इतना कहते ही, उसके पेट में आने लगते हैं मोरोड़े। फिर क्या ? वह चिल्लाता हुआ कहता है, ज़ोर से..]
रूप लाल – [चिल्लाता हुआ कहता है] – अरे राम रे, मेरे पेट में उठ रहे हैं मरोड़े। भगवान जाने, मेरे पेट में दर्द क्यों होने लगा ?
[अब रूप लाल के पेट में मरोड़े होने लगे, तेज़। दर्द नाक़ाबिले बर्दाश्त होने की स्थिति में, वह अनाप-शनाप बकता जा रहा है]
रूप लाल – [पेट पकड़कर कराहता हुआ कहता है] – मर गया, मेरी जामण। अरे राम, इस रसोड़दार के बच्चे ने न मालुम क्या मिला दिया इन बड़ो में ? अभी जाकर उसे पकड़कर उसकी पूजा करता हूं, मेरे गंगा राम से। अरे कचोरी लाल अब तू ही भा’सा का ध्यान रखना, अर र र, मुझे तो हो रही है दीर्घ शंका। [पेट दबाता है] अरे भगवान, मैं जा रहा हूं निपटने..अरे रे रे।
[वापस कचोरी लाल क्या कह रहा है, अब यह सुनने की रूप लाल को कहां ज़रूरत ? वह बेचारा दीर्घ शंका को दबाये, दौड़कर जा पहुंचता है...पाख़ाने के पास। बाहर खूंटी पर लटक रहे ट्वाल को उठाकर लपेट लेता है, और पेंट खोलकर लटका देता है उसे..खूंटी पर। फिर शीघ्र पहुंच जाता है, पाख़ाने के दरवाज़े के पास। मगर, वहां तो ऐसा लगता है..कोई दूसरा रासा चल रहा है। वहां पाख़ाने के बाहर, सिपाईयों की लम्बी कतार लगी है। कतार में खड़े सिपाईयों की हालत हो रही है, पतली। वे बार-बार आकर पाख़ाने के दरवाज़े पर दस्तक देते हैं, मगर अन्दर बैठा सिपाही दरवाज़ा खोलकर बाहर नहीं आ रहा है। वहां खड़े रूप लाल के पेट में, और तेज़ी से मरोड़े उठते जा रहे हैं। इधर उसके पेट में दर्द उठ रहा है, और उधर दीर्घ शंका का दबाव बढ़ता ही जा रहा है..जिसे वह रोकने में, असमर्थ है। फिर क्या ? दीर्घ शंका पर नियंत्रण बेकाबू होने से, वह आकर पाख़ाने के दरवाज़े पर ज़ोर-ज़ोर से दस्तक देता हुआ कहता है]
रूप लाल – [दरवाज़े पर, ज़ोर से दस्तक देता हुआ कहता है] – कौन है, अन्दर ? फटके से निकल जा, बाहर। नहीं निकलता है तो, साला मेरे हाथ की फोड़ी खायेगा।
[इधर ओमजी बड़े की प्लेटें सिपाईयों को थमाते-थमाते जा पहुंचते हैं, वहां। अब वहां खड़े होकर वे इस खिलके को देखते हैं, और अपने अटालपने के सबूतों पर हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते हैं। मगर किस्मत ख़राब ओमजी की, अचानक वहां तशरीफ़ ले आते हैं सवाई सिंहजी। वे इन्हें वहां खड़े देखकर, कड़कती आवाज़ में उनसे कहते हैं]
सवाई सिंहजी – [कड़कती आवाज़ में पूछते हैं] – ओय जवान, यह होम गार्ड की वर्दी पहनकर यहां क्यों खड़ा है ? [याद करने का अंदाज़, दिखाते हुए कहते हैं] अच्छा, कमीशनर साहब ने लगायी होगी स्पेशियल ड्यूटी। एक काम याद आ गया, अरे ओ जवान..
[तभी थार एक्सप्रेस के यात्रियों का माल चैक हो जाने की सूचना लाने का काम उन्हें याद आ जाता है, वे ओमजी को हुक्म देते हुए कहते हैं]
सवाई सिंहजी – माल गोदाम जाकर पता लगाना, के थार एक्सप्रेस में बैठने वाले यात्रियों का सामान चैक हो गया या नहीं ?
ओमजी – [सलाम ठोककर, कहते हैं] – हुकूम, अभी पता लगाकर आता हूं।
[सवाई सिंहजी ठहरे, भुल्लकड़ जीव। उन्होंने ख़ुद ओमजी को भेजा था, जी.आर.पी. दफ़्तर। और अब ख़ुद ही भूल गए, जनाब ? इस तरह आदेश देकर वे चले आते हैं, अपने कमरे में। अब कमरे का ए.सी. स्टार्ट करके वे अपनी सीट पर बैठ जाते हैं। इतने में दौड़ता हुआ रूप लाल आता है, सवाई सिंहजी के कमरे में। आकर, करता भी क्या ? बेचारा रूप लाल पाख़ाने में दाख़िल न हो सका, अत: अब वह सवाई सिंहजी के सामने कराहता हुआ कहता है।]
रूप लाल – [कराहता हुआ कहता है] – साहब, मेरे पेट में ज़बरदस्त मरोड़े उठ रहे हैं। मुझे आप अभी, जल्दी छुट्टी दे दीजिये।
सवाई सिंहजी - [आँखें तरेरकर कहते है] – मिस्टर, यह क्या बहाने-बाजी ? क्या, तुम्हारी ड्यूटी पूरी हो गयी ? जाओ, अपना काम करो।
रूप लाल – [रोनी सूरत बनाकर, कहता है] – आप जाकर देख आइये, पाख़ाने की हालत। अरे जनाब, सिपाईयों की लम्बी कतार लगी है बाहर। भगवान जाने क्यों, एक साथ सबको दीर्घ शंका की समस्या आन पड़ी ? यह दीर्घ शंका मेरे लिए, नाक़ाबिले बर्दाश्त है। अगर आपने मुझे छुट्टी नहीं दी, तब जनाब...
सवाई सिंहजी – तब तू, क्या कर लेगा ? मुझको धमकी दे रहा है, उल्लू के पट्ठे ?
रूप लाल – हुज़ूर मैं धमकी नहीं दे रहा हू आपको, सत्य बात अब यही है...के, छुट्टी दे दीजिये मुझे, नहीं दी तो आपको गंदीवाड़ा साफ़ करने के लिए किसी मेहतर को..यहीं, बुलाना पड़ेगा। फिर कह देता हूं जनाब, यह गंदीवाड़ा करने की ग़लती मेरी नहीं होगी।
[दफ़्तर में सिपाईयों के बीच यह धमा-चौकड़ी ऐसी मचती है, किसी का ध्यान इन तीनों कुबदियों की तरफ़ नहीं जाता, के ‘वे तीनों कुबदी इस वक़्त क्या कर रहे हैं ?’ इस समय ओमजी चुप-चाप इशारा करते हैं, मोहनजी को। रशीद भाई इशारा करते हैं, रतनजी को के “भय्या मैदान साफ़ है, फटके से बैग लेकर निकल पड़ो।” इशारा पाकर यह चंडाल चौकड़ी, अपना बैग उठाये स्टेशन के बाहर आ जाती है। किसी तरह इस दफ़्तर से बाहर आकर, यह चंडाल चौकड़ी चैन की सांस लेती हैं। मगर मना करने के बाद भी बड़े चेपने वाले मोहनजी, अब टसकाई से कहते हैं]
मोहनजी – [टसकाई से कहते हैं] – रुको रे...! कहां जा रहे हो, कढ़ी खायोड़ो ? मुझे हुई है, अब दीर्घ शंका।
रशीद भाई – [खीजे हुए कहते हैं] – मना करने के बाद भी, आपने बड़े क्यों खाए ? मुफ़्त का माल खाने की खोटी आदत आपने ऐसी डाल दी, ख़ुदा जाने अब क्या होगा ? ख़ुद मरोगे, और हमको भी लेकर डूबोगे ? अब भुगतो या फिर सोचो, आगे क्या करना है ?
रतनजी – इनको रुकने मत दीजिये, इनके पीछे अपुन भी मरेंगे..यार, बड़ी मुश्किल से आये हैं बाहर। मोहनजी से यों कहिये, के ‘अब होने वाली दीर्घ शंका को यहीं दबा लीजिये..ना तो ये कमबख़्त हवलदार यहां आ गए तो, ज़रूर अपने गंगा राम से सबका पिछवाड़ा सूजा देंगे...?’
[इधर अब ओमजी झट जाकर स्टेण्ड से लेकर आ जाते हैं, अपनी मोटर साइकल। फिर कहते हैं, मोहनजी से..]
ओमजी – [गाड़ी स्टार्ट करते हुए, कहते हैं] – बिराजिये, मोहनजी। अब बापूड़ा यहां बैठे रह गए तो, सभी मारे जायेंगे ?
[गाड़ी पर मोहनजी को बैठाकर, अब ओमजी गाड़ी को तेज़ रफ़्तार से दौड़ाते जा रहे हैं। हमेशा बेचारे मोहनजी गर्ज़ करते हैं, ओमजी की..के “मुझे गाड़ी पर बैठाकर, छोड़ दीजिये..!” और ओमजी झट मना करते हुए, कह दिया करते हैं “जनाब, मेरी गाड़ी चलती है प्योर पेट्रोल से। आप पेट्रोल डलवा दीजिये, गाड़ी में..फिर आप जहां कहेंगे, वहां छोड़ दूंगा आपको।” मगर अब किस्मत चमकी है, मोहनजी की। आज़ वे गर्ज़ करके, मोहनजी को ज़बरदस्ती गाड़ी पर बैठाकर ले जा रहे हैं। अब रास्ते में मोहनजी को लगती है, ठंडी हवा। फिर, वे टसका करते हुए कहते हैं]
मोहनजी – [टसका करते हुए, कहते हैं] – अहाss अहाss मरुं रे sss। रुक जाइये, ज़रा..!
ओमजी – [गाड़ी चलाते हुए, कहते हैं] – चुप-चाप बैठ जाओ, मोहनजी। पिछली दुकान को दबा लो, दीर्घ शंका का निवारण घर जाकर कर लेना। अभी मुझे गाड़ी चलाने दीजिये, नहीं तो जनाब आप ख़ुद नीचे गिरोगे और बापूड़ा मुझको भी साथ लेकर गिरोगे। अरे बेटी का बाप यहां तो इस गाड़ी के ब्रेक भी नहीं है, अब ख़ुद मरोगे और मुझको भी ले डूबोगे।
मोहनजी – तब क्या करूं, कढ़ी खायोड़ा ?
ओमजी – अब आप लीजिये, बाबा का नाम। सुरुक्षित पहुंचा दूंगा, जनाब। बोलिए जनाब, बाबा रामसा पीर कीsss..
मोहनजी – [दीर्घ शंका को दबाते हुए, धीरे-धीरे कहते हैं] – जय हो।
[ओमजी को रुख़्सत देने के बाद, दोनों साथी तेज़ गति से चलते जा रहे हैं। रतनजी तो रातानाडा की तरफ़ जाते हैं, और रशीद भाई अपने क़दम सिटी-बस स्टेण्ड की ओर बढ़ा देते हैं। वहां मंडोर जाने वाली बस तैयार खड़ी है, फिर क्या ? जनाब झट चढ़ जाते है, बस में। ख़ुदा रहम, ख़ुदा रहम कहते-कहते बेचारे अपनी सीट पर आकर बैठते हैं। तभी उनको आस-पास बैठने वाले पैसेंजरों की आवाजें सुनायी देती है।]
एक पैसेंजर – यार रफ़ीक़, चोराए पर क्या फाइटिंग हो रही थी ? ऐसी फाइटिंग, अमिताभ बच्चन भी नहीं कर सकता मियां।
रफ़ीक़ – ऐसा क्या हो गया, नूर मियां ? मैं भी उधर से गुज़र के आ रिया हूं।
नूरिया - अचरच होता है, मियां। उन फकीरियो ने, ख़ुदा जाने कैसे तमंचा निकाला..अपने-अपने झोले से ? [रिवोल्वर चलाने का अभिनय करता हुआ, कहता है] ऐसे गोली मारी ठेंss ठेss ठेss..! फिर हिज़ड़ों ने ज़वाब में गोली मारी ऐसेऽऽऽ [एक्शन करता हुआ, बोलता है] ट्वीऽऽऽट ट्वीऽऽऽट।
[पहलू में बैठी नूरिया की खातूने खान [बीबी] फातमा से चुप-चाप बैठा नहीं जाता, वह बीच में बोल पड़ती है]
नूरिया की बीबी फातमा – हाय अल्लाह। ओ रफ़ीक़ भाईजान, एक हिज़ड़े ने कमाल कर डाला ? क्या जोश भरा था, उसमें ? उसने तो दस-दस फकीरों को, कूद-कूदकर मारा।
[नूरिया से कहती है] ओ जमालिया के अब्बा, तुम घर पर बंदूकड़ी लाकर क्या नाम काड दिया अपने अब्बू का ? यहां तो उस हिज़ड़े ने, दस-बीस फकीरों को बख़ में ले लिया ? कभी ऐसी लड़ाई देखी, तुमने ?
रफ़ीक़ – फिर क्या हुआ, आपा ?
बीबी फातमा – फिर, होना क्या ? फ़िल्मी स्टाइल से आ गयी पुलिस, सब फकीरों को पकड़कर हिरासत में ले गयी। अरे मुझे तो यह भी पता नहीं पडा, वह जोशीला हिज़डा आख़िर था कौन ? उसको देखकर, सिपायों ने क्यों ठोका सलाम ? कुछ तो बोलो, जमाले के अब्बू..क्यों मुंडा फेरकर बैठे हो ?
[इतनी बातें सुनकर, रशीद भाई अन्दर ही अन्दर सहम जाते हैं। फिर उन सबको दो नंबर की फटकार पिलाते हुए, कहते हैं]
रशीद भाई – [दो नंबर की डांट लगाते हुए, कहते हैं] – आप लोगों से, चुप-चाप बैठा नहीं जाता ? क्यों अफवाह का बाज़ार, गर्म करते जा रहे हो ? कहीं सी.आई.डी. पुलिस को मालुम हो गया तो, आप सबको हिरासत में लेकर अन्दर बैठा लेगी।
[अभी तो बेचारे रशीद भाई, इन पुलिस वालों की गिरफ्त से बचकर आये हैं। इस तरह इन लोगों की बातें सुनकर, वे और भयभीत हो गए हैं। कहीं इनकी बातें सुनकर ये कमबख़्त पुलिस वाले, इधर आकर इनकी पिछली दुकान डंडे से पीटकर सूजा न दें ? वे उसे, सूजा क्या देंगे ? वे तो इनको पकड़कर, बैठा देंगे हवालात में। और ऊपर से उन पर, हिरासत से भागने का आरोप भी जड़ देंगे ? मार तो पड़ेगी ही, ऊपर से इनकी इज़्ज़त की बखिया अलग से उधड़ जायेगी ? यह डर ज्यों ज्यों बढ़ता जा रहा है, त्यों त्यों इनकी फ़िक्र भी बढ़ती जा रही है। इस तरह, वे इन बेवकूफ सवारियों के बारे में सोचते जा रहे हैं।]
रशीद भाई – [अन्दर ही अन्दर, धमीड़ा लेते हुए कहते हैं] – गधों। तुम लोगों को आती है, बातें। और यहां मुझे, अपना जीव बचाना है। ठोकिरा...कहीं ये पुलिस वाले, यहां नहीं आ जाय ?
[अब बड़े बुजुर्ग जैसे रशीद भाई के चेहरे पर छाये खौफ़ देखकर, रफ़ीक़ और नूरिया उन्हें हाथ जोड़कर कहते हैं]
रफ़ीक़ – [हाथ जोड़कर, कहते हैं] – माफ़ कीजिये, बड़े मियां।
नूरिया – [हाथ जोड़कर, कहते हैं] – हुज़ूर माफ़ कीजिएगा, अब नहीं बोलेंगे। [ड्राइवर से कहते हैं] भाईजान, मोड़ा हो रिया है..अब गाड़ी चलाइये, जनाब अब देर मत कीजिये।
[ड्राइवर होर्न दबाता है, फिर गाड़ी को स्टार्ट करता है। कुछ ही मिनटों में गाड़ी सडकों पर दौड़ने लगती है। मंच पर, अंधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच पर रौशनी फैलती है। जी.आर.पी. दफ़्तर का मंज़र सामने दिखायी देता है। बगीचे के अन्दर, सवाई सिंहजी और आनंदजी पुरोहित कुर्सियों पर बैठे हैं। उनके पास, कई सिपाही खड़े हैं। अचानक आस करणजी हाम्फते हुए, आते दिखाई देते हैं..और बगीचे में बैठे पुरोहितजी के ऊपर, उनकी नज़र गिरती है। वे इस समय, लिम्का की दो बोतले ख़ाली कर चुके हैं। अब वे ख़ाली बोतलों को ज़मीन पर रखते हैं, फिर ज़ोर से डकार लेते हैं। डकार लेने के बाद, पुरोहितजी कहते हैं।]
पुरोहितजी – [डकार खाकर, कहते हैं] – आहsss, अब आया, पेट ठिकाने। [सवाई सिंहजी की ओर देखते हुए कहते हैं] अब आप यह बताइये, आप बार-बार तमंचा लेकर सिपाईयों के साथ बाहर क्यों जाते हैं, और फिर वापस अन्दर आ जाते हैं..फिर, बाहर चले जाते हैं ?
सवाई सिंहजी – क्या कहा आपने, तमंचा ? अजी पुरोहितजी, तमंचे का क्या मफ़हूम है ? कहीं यह वह टिकड़ी छोड़ने का तमंचा तो नहीं है, जिसे दीपावली पर बच्चे काम लेते हैं ?
पुरोहितजी – [हंसते हुए कहते हैं] – अरे जनाब, आप नहीं जानते..मारवाड़ी भाषा में तमंचे का मफ़हूम होता है, रिवोल्वर। अब आप यह कहिये, ये पत्रकार लोग आपका साक्षात्कार लेकर फोटूएं क्यों खींचते जा रहे हैं ? जबकि ये पत्रकार लोग, जीजी के आस-पास घुमा करते हैं। मगर यहां तो माया, कुछ अलग ही लगती है।
सवाई सिंहजी – क्या भाई, मैं इंसान नहीं हूं ?
पुरोहितजी – यह तो मुझे पता नहीं..के, आप इंसान हैं या जानवर ? अब यह तो जानवरों के डॉक्टर ही बता पायेंगे, उनसे पूछना पड़ेगा।
सवाई सिंहजी – क्यों भाई, क्या मैं इंसान नहीं हूं ? जनाब, मैं भी भगवान का बनाया हुआ इंसान हूं। मुझसे भी पत्रकार वार्ता कर सकते हैं, और मेरी भी फोटूएं खींच सकते हैं।
पुरोहितजी – मुझे यह तो पता नहीं, आप इंसान हैं या कोई और ? इस सवाल का ज़वाब तो जनाब, वेटेनरी डॉक्टर ही दे सकता है, मैं बेचारा एफ.सी.आई. महकमे का डिपो मैनेजर क्या कह सकता हूं ? गेहूं या चावल की किस्म की जांच करनी हो तो, मैं आपके काम आ सकता हूं। कहिये, मेरे लिए कोई काम हो तो..हुक्म कीजिये ?
[नज़दीक आते आस करणजी, सुन लेते हैं, के ‘पुरोहितजी अभी क्या कह रहे थे ?’ अब वे पास आकर, पुरोहितजी के पास पड़ी कुर्सी को खींचकर बैठ जाते हैं। अब वे, सवाई सिंहजी से कहते हैं]
आस करणजी – [कुर्सी पर बैठकर कहते हैं] – सवाई सिंहजी, आप पुलिस अधिकारी हैं। जो क़ानून की रक्षा करते हैं। [पुरोहितजी से कहते हैं] पुरोहितजी सा, आप इनके पास गेहूं-चावलों की बात लेकर कैसे बैठ गए ? इंसानों को चाहिए, अनाज। इंसानों के पास जाकर, ऐसी बातें कीजिये। ये अनाज की बातें, इंसानों से करनी अच्छी है। इनसे ऐसी बात, हरगीज़ नहीं।
सवाई सिंहजी – अरे भा’सा, आप ऐसी उखड़ी बातें क्यों कर रहे हैं ? आपको भी, क्या मैं इंसान नहीं लगता हूं ?
आस करणजी – आप बड़े पुलिस अफ़सर हैं, क़ानून की रक्षा करने वाले आप हैं। आपसे ज़्यादा, क़ानून का जानकार है कौन ? यहां बैठे सज्जनों में, आपसे ज़्यादा क़ानून के बारे में कौन जानता है ? के, ‘क़ानून की देवी की आँखों पर, पट्टी बंधी हुई है।’
सवाई सिंहजी – क्या कह रहे हैं, भा’सा ? समझ में नहीं आ रहा है, आख़िर आप कहना क्या चाहते हैं ?
आस करणजी – सही कह रहा हूं, जनाब। जहां उसूल या नियम-क़ायदे हैं, वहां दिल नाम की कोई चीज़ नहीं होती। बोलिए जनाब, आपके पास दिल नाम की कोई चीज़ है ?
[आस करणजी की बात सुनकर, सवाई सिंहजी को छोड़कर सभी मींई निम्बली की तरह हंसते हैं। फिर सभी, सवाई सिंहजी का मुंह इस तरह ताकते हैं..मानो वे किसी अजूबे को, देखते जा रहे हैं ? मगर सवाई सिंहजी को यह बात समझ में नहीं आती, के ‘आख़िर, बात क्या है ?’ खैर, आस करणजी को असली मुद्दे पर आना पड़ता है।]
आस करणजी – एक हिज़ड़े की शिकायत सुनकर आपने, बेचारे मोहनजी और उनके साथियों को कैसे बैठा दिया...अन्दर ? मुझे भी आपने, पूछने की कोई ज़रूरत नहीं समझी ? के, आख़िर यह मामला क्या है ? बेचारे इज्ज़तदार इंसान की इज़्ज़त धूल में मिला दी, आपने ? अब सुनिए, जनाब। इन लोगों ने इन हिज़ड़ों से कोई जुर्माना नहीं लिया है, लिया है तो..ख़ाली लिया है चन्दा ‘टीटीयों के सम्मलेन’ का, वह भी मेरे कहने पर।
[यह बात सुनते ही, चारों तरफ़ श्मसान सी शान्ति छा जाती है। मगर, आस करणजी चुप रहने वाले पूत नहीं। वे अपने बोलने का भोंपू, बराबर चालू रखते हैं]
आस करणजी – [ज़ोर से कहते हैं] – मेरे कहने पर उन्होंने चन्दा इकट्ठा किया, मेरी मदद के लिए। फिर, आपको इससे क्या लेना-देना ? इस तरह इन लोगों को अन्दर बैठाना, क्या आपको शोभा देता है ? [बैग से रशीद बुकें निकालते हुए, कहते हैं] लीजिये, ये देखिये चंदे की रसीद बुकें। अब देख लीजिये, आपके सबूत। अब आपको कोई कहे, के आप इंसान हैं या...
[सवाई सिंहजी आस करणजी से चंदे की रसीद बुकें लेकर, उन्हें देखते हैं। फिर, वापस आस करणजी को थमा देते हैं। इसके बाद, बेचारे बिना तोड़ क्या बोलते ? बस, सर पर हाथ रखकर बैठ जाते हैं।]
आस करणजी – ऐसे भले इंसानों को आपने दुःख पहुंचाया है, यह इतनी छोटी सी बात मालुम आप मालुम नहीं कर पाए ? इन लोगों की ईमानदारी देखिये, ये कभी बेचारे एम.एस.टी. नहीं बनवा पाते, तब ये लोग टिकट लेकर ही गाड़ी में सफ़र करते हैं..इन हिज़ड़ों की तरह, मुफ़्त की यात्रा नहीं करते।
सवाई सिंहजी – [लंगड़ा तर्क प्रस्तुत करते हुए, कहते हैं] – आपको, क्या पता ? शायद, ये हिज़ड़े भी टिकट लेते हों ? मान लिया जाय, ये लोग टिकट नहीं लेते है..फिर आप जैसे ईमानदार टी.टी.ई., इन हिज़ड़ों को छूट क्यों देते आये हैं ? अगर आपने बेटिकट सफ़र करने की छूट न दी, तो फिर आप इन बेटिकट सफ़र करने वाले हिज़ड़ों को पकड़कर क्यों नहीं लाते हमारे पास ?
आस करणजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – सवाई सिंहजी सा। कभी आपको, इन हिज़ड़ों से पाला पड़ा ? पाला पड़ा हो तो, आप इतने चौड़े होकर कभी नहीं बोलते।
पुरोहितजी – पाला पड़ता तो..? सवाई सिंहजीसा, आपकी इज़्ज़त की, बखिया उधेड़ देते ये हिज़ड़े। [आस करणजी से कहते हैं] आस करणजी सा, सभी अपनी इज़्ज़त का रोना रोते हैं। कोई इनके पास, नहीं फटकता। तभी मालिक, आप भी इन हिज़ड़ों से दूरी बनाए रखते हैं।
आस करणजी – [झुंझलाते हुए, कहते हैं] – आप अच्छी तरह से, मेरी बात सुनों। ये लोग आपके इन हिज़ड़ों की तरह, कभी बेटिकट यात्रा नहीं करते। कभी आपने सुना क्या, इन हिज़ड़ों ने कभी टिकट लिया है ? लिया हो तो बताइये, मुझे ? अब आपके दिल में, कोई शंका तो नहीं है ? आपका दिल साफ़ हो गया, या नहीं ? जाइये, अब लेकर आ जाइये हमारे मोहनजी और उनके साथियों को..!
सवाई सिंहजी – [सर थामते हुए कहते हैं] – आप ले जाइये मोहनजी, और इनके तीनों बंदरों को..[देवी जगदम्बे मां को, याद करते हुए कहते हैं] अरे दुर्गा मां, ऐसे खपचियों को क्यों भेजा यहां ? इन लोगों ने आकर, मेरा सर-दर्द बढ़ा दिया ? [दर्द के कारण, कराहते हुए कहते हैं] अहss, oh my god।
[रूप लाल और कचोरी लाल, सामने से आते दिखायी देते हैं। अब कचोरी लाल यहां आकर, हड़बड़ाता हुआ कहता है।]
कचोरी लाल – [हड़बड़ाता हुआ कहता है] – साहब, मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी भाग गयी है।
रूप लाल – हुकूम, आप अब इस चांडाल-चौकड़ी को वापस पकड़कर लाने का हुक्म दीजिये। जनाब, अब आपको क्या कहूं ? इन लोगों ने सभी हवलदारों के धोतिये और पोतिये खोल दिए, जनाब। अरे नहीं हुज़ूर, सभी हवलदारों की पतलून खुलवाकर भाग गए जनाब।
[इतना सुनते ही, सवाई सिंहजी को आयी ज़ोर की हंसी। वे ठहाका लगाकर ऐसे ज़ोर से हंसते हैं, जिससे उनको हंसते देखकर मोहनजी के हितेषी आस करणजी नाराज़ हो जाते हैं। अब वे क्रोधित होकर, कहते हैं]
आस करणजी – सवाई सिंहजी सा, ये आपके टुरिये एक नंबर के खर्रास [झूठ बोलने वाले] है। अब आप यह बताइये, के ‘मोहनजी और उनके साथी आपके कस्टडी में थे या नहीं ?’ अगर थे, तब वे कैसे भाग सकते हैं ? या तो वे आपकी कस्टडी में अन्दर पड़े होंगे, या फिर आप लोगों ने इनका बेरहमी से फर्जी एनकाउंटर कर डाला होगा ?
रूप लाल – [घबराता हुआ कहता है] – नहीं टीटी बाबूजी सा, ऐसी बात नहीं है। सत्य बात तो यह है, यह पूरी चांडाल-चौकड़ी ओटाळपने की उस्ताद है। हमारी आंखों में धूल डालकर, यह पूरी चौकड़ी नौ दो ग्यारह हो गयी है।
आस करणजी – [गुस्से से काफ़ूर होकर, कहते हैं] आप टूरिया लोगों ने बहुत ज़्यादा पेट भर लिया है, अब करा लीजिये टिकट..आरक्षित जाजरू [पाख़ाना] का। पेट साफ़ होने में लगता है, पूरा दिन। फिर, आप किसी आदमी को अन्दर जाने मत देना। और उस जाजरू के दरवाज़े के ऊपर चिपका देना एक काग़ज़, यह लिखकर..के, ‘आरक्षित जाजरू श्री मोहनजीताकि कोई दूसरा आदमी उसके अन्दर दाख़िल न हो सके।
सवाई सिंहजी – रहने दीजिये, आस करणजी...
आस करणजी – [क्रोधित होकर कहते हैं] – कैसे रहने दूं, जनाब ? आज़कल टी.वी. के कई चैनलों में ऐसी ही ख़बरें आती रहती है, फर्जी एनकाउंटर करने की। फिर आप कहिये, मैं कैसे धीरज धारण करके बैठ जाऊं ?
सवाई सिंहजी – अरे भा’सा, आप ऐसे कैसे कह सकते हैं ? आप तो आराम से बैठे हैं, कुर्सी पर ? फिर, क्या रोना ?
आस करणजी मुझे अब आपने, ऐसे कैसे कह दिया ? अब इस ग़रीब आदमी को, गरीबों की हितेषी जीजी के पास जा होगा। जीजी ही ऐसी एक मात्र जन-प्रतिनिधि है, जो मुझे न्याय दिला पायेगी। अरे जनाब, अब क्या कहूं आपको ? कैसे समझाऊं ? इस वक़्त सरकार ने इमरजेंसी लागू नहीं की है, जिसके आधार पर आप मर्जी आये तब किसी को अन्दर बंद बैठा दें ?
सवाई सिंहजी – और कुछ कहना बाकी रह गया, क्या ?
आस करणजी – कहूंगा, जनाब। क्या आप मुझे डराकर, मेरी ज़बान बंद कर सकते हैं ? सोच लीजिये, जनाब। कल से विधान-सभा-सत्र चालू होगा, जीजी ज़रूर विधान-सभा में इस ग़रीब की आवाज़ उठायेगी। इस वक़्त जीजी और कई पत्रकार, और टी.वी. चैनल वाले यहां आये हुए हैं। मैं जाता हूं अभी, उनके पास। [पुरोहितजी को, आँख से इशारा करते हैं] क्यों पुरोहितजी, ठीक है ना ?
पुरोहितजी – [आस करणजी का कंधा थपथपाते हुए, कहते हैं] शत प्रतिशत सही कहा, भासा। यह जीजी, हम जैसे ग़रीब दीन-दुखियों की बात सुना करती है। जैसा इस दफ़्तर को जागरुक सुना, वैसा यह है नहीं। मैं ख़ुद, इस दफ़्तर का शिकार हो गया हूं...
सवाई सिंहजी – [घबराकर कहते हैं] – आप क्या कह रहे हैं, कहां बैठे हैं आप ? [कुर्सी से उठते हैं]
पुरोहितजी – मुझे आप धमकी दे रहे हैं, क्या ? सुन लेना, मैं डरने वाला आदमी नहीं हूं। मैं सच कह रहा हूं, सवाई सिंहजी। तबीयत ख़राब कर डाली...आपने, मेरी। आपको, क्या मालुम ?
सवाई सिंहजी – बताओ, आख़िर बात क्या है ?
पुरोहितजी – यह कह रहा हूं, के ‘आपके दफ़्तर वालों ने, न मालुम क्या बड़ो में डालकर मुझे खिला दिया ? ए रामापीर, मेरी तबीयत ख़राब कर डाली इन्होंने।’ यहां तो फ़ूड-पोइजनिंग का प्रकरण बनता है, सवाई सिंहजी सा। अभी जाता हूं मैं, जीजी के पास। अब आगे, क्या होगा ? वह रामसा पीर जाने, या आपका दिल जाने।
[पुरोहितजी की बात सुनते ही, सवाई सिंहजी के पास कोई ज़वाब नहीं। आख़िर बेचारे, सर पर हाथ रखकर वापस कुर्सी पर बैठ जाते हैं। थोड़ी देर पहले वे, रूप लाल की तबीयत देख चुके हैं। उनको वसूक हो जाता है, कुछ तो मामला है ही। उधर दफ़्तर के बाहर, पत्रकारों की चहलक़दमी ने उनको और भयभीत कर डाला..! बेचारे घबरा जाते हैं, और उनके दिल धड़कन बढ़ जाती है। घबराकर, वे पुरोहितजी से कहते हैं..]
सवाई सिंहजी – [छाती पर हाथ रखे कहते हैं] – पुरोहितजी आपको ज़रा तक़लीफ़ दे रहा हूं, प्लीज़ आप डाक्टर बनर्जी को फ़ोन लगा दीजिये ना..मेरे दिल की धड़कन, न जाने क्यों बढ़ती जा रही है..?
पुरोहितजी – देखिये जनाब, मेरी तबीयत की परवाह कीजिये मत..मुझे, कुछ नहीं हुआ है। अगर आपकी तबीयत ख़राब हो गयी है, तो मैं एक चुटकी में आपकी तबीयत ठीक करता हूं। देखिये जनाब, उतरीय पुल की तरफ़..
[अब सवाई सिंहजी को, सारे पत्रकार गेट की तरफ़ जाते दिखाई देते हैं। उनको जाते देखकर, सवाई सिंहजी के दिल को ठंडक मिलती है। धीरे-धीरे उनके दिल की धड़कन, स्वत: सामान्य हो जाती है। अब उनको पूरा वसूक हो गया है, इधर दफ़्तर की तरफ़ कोई नहीं आ रहा है। सवाई सिंहजी का चेहरा देखते हुए, पुरोहितजी मुस्कराकर कहते हैं..]
पुरोहितजी – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – कोई नहीं आयेगा, इधर। धीरज रखिये, जनाब। अब सवाई सिंहजी सुनो, मेरी बात। ऐसा लल्लू-पंजू कलेज़ा मत रखो, यार। आख़िर, आप एक बहादुर पुलिस अधिकारी हो यार। अब, किस बात का घबराना ?
[इतने में, आस करणजी के मोबाइल पर घंटी आती है। आस करणजी मोबाइल ओन करके कान के पास ले जाते हैं, फिर कहते हैं..]
आस करणजी – [मोबाइल से बात करते हुए, कहते हैं] – हेलो, कौन जनाब फ़रमा रहे हैं ?
मोबाइल से मोहनजी की आवाज़ आती है – “पहचाना नहीं, जनाब ? मैं हूं मोहन लाल...कढ़ी खायोड़ा, अरे जनाब यों आप हमें कैसे भूल जाते हैं ?
आस करणजी – [मोबाइल से बात करते हुए] – अरे मालिक, आप तो मोहनजी कढ़ी खयोड़ा हैं ? जय श्याम री सा, मोहनजी। अभी आपको ही, याद कर रहे थे।
मोहनजी – [मोबाइल से आवाज़ आती है] - याद तो हम करेंगे, आप जैसे टी.टी,ई. दोस्त मिले कभी हमें ? आपकी मदद क्या की, जनाब ? बस, तक़लीफ़ें ही तक़लीफ़ें...
आस करणजी – [मोबाइल से बात करते हुए] – क्या कहा, आपने ? मेरे कारण आपने कष्ट उठाये, यह कैसे हो सकता है बेटी के बाप ?
मोहनजी – [मोबाइल से आवाज़ आती है] – सवाई सिंहजी कढ़ी खायोड़ा, जिन्हें आप अपना दोस्त कहते हैं..उन्होंने, मेरी इज़्ज़त उतार डाली।
आस करणजी – [मोबाइल पर हंसते हुए बात करते हैं] अरेssss सा, इज़्ज़त तो औरतों की जाती है। [हंसते हैं] जनाब, आप कब औरत बन गए ? कहीं आप दिल्ली जाकर, सेक्स चेंज का ओपरेशन करवाकर तो नहीं आ गए ?
मोहनजी – [गुस्से में मोबाइल में कहते हैं] – आप करवा लीजिये अपना ओपरेशन, हमारा सीना अभी धड़कता है, ख़ूबसूरत औरतों को देखकर। मगर..
आस करणजी – [मोबाइल से बात करते हुए] – अच्छा जनाब, अच्छा। अब काम की बात, कीजिये।
मोहनजी – [मोबाइल से आवाज़ आती है] – हम कोई कम नहीं है, भासा ? पूरे एक नंबर के ओटाळ है, हम। इन पुलिस वालों की पतलून खुलवाकर, हो गए नौ दो ग्यारह। समझ गए, आप ? हमारी चांडाल-चौकड़ी एक नंबर की ओटाळ है।
आस करणजी – [मोबाइल से बात करते हुए] – अच्छा जनाब, आप छूटकर आ गए, अपने ओटाळपने के ख़ातिर ? मालिक, अब आप मेरे माली-पन्ने उतारेंगे तो नहीं बैठकर ? चलिए अब आप काम की बात कीजिये, वरना आपके मोबाइल का चार्ज बढ़ता जायेगा। कहिये जनाब, कैसे फ़ोन किया ?
मोहनजी – [मोबाइल से आवाज़ आती है] – बात यह है, आपके किसी रिश्तेदार ने पाली का गुलाब हलुवा भेजा है। मगर उनको गोपसा मिले नहीं, और दीनजी भा’सा को थमा गए यह गुलाब हलुवा। और उन्होंने लाकर मुझे थमा दिया, के मैं आपको दे आऊंगा ? अब आप घर आ जाइये, और ले जाइये अपना गुलाब हलुवा।
आस करणजी – [मोबाइल से बात करते हुए] – आप यह बताइये, यह हलुवा आख़िर भेजा किसने ?
मोहनजी – [मोबाइल से आवाज़ आती है] – आपकी कोटी मासी ने, जिसकी..
आस करणजी – [मोबाइल से बात करते हुए] – सुनायी नहीं दे रहा है, जनाब। वापस कहिये, मालिक।
मोहनजी – [मोबाइल से आवाज़ आती है] – आपकी कोटी मासी जिनकी छोरी फुरकली है, उसके बेटे के ससुराल से २१ रंदे मिठाई आयी है। कोटी मासी पाली स्टेशन पर आयी, उन्होंने यह एक आधा किलो गुलाब हलुवे का डब्बा..दीनजी के साथ, आपके लिए भेजा है। अगर गोपसा उन्हें मिल जाते तो, वे उनके साथ ही यह डब्बा भेजते। दीनजी ने यह डब्बा मुझे थमा दिया, और..
आस करणजी – [मोबाइल से बात करते हुए] – कुछ नहीं, आप ले आये डब्बा गुलाब हलुवे का। क्या हो गया, एक ही बात है। आधे घंटे में हाज़िर होता हूं, आपके रावले। सुनो मेरी बात, तब-तक आप काली-मिर्च के मसाले वाली चाय उबालकर रखना। अब मालिक, फ़ोन रख़ता हूं। जय श्री कृष्ण।
[इतनी बात करने के बाद, आस करणजी मोबाइल को बंद करके अपनी ज़ेब में रखते हैं। फिर ख़ुश होकर, वे सवाई सिंहजी से कहते हैं]
आस करणजी – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – अब मीठा मुंह ज़रूर होना चाहिए, सवाई सिंहजी सा। मोहनजी पहुंच गए हैं, अपने घर। आपकी समस्या मिटी, अब इसी वक़्त मंगवा लीजिये मिठाई..और चढ़ाइए प्रसाद, माताजी को। क्योंकि, पुरोहितजी भी बैठे हैं। नहीं तो फिर, इनका मुंह मीठा कब होगा ?
[अब सवाई सिंहजी ख़ुश होकर ज़ेब से रुपये निकालकर, पहलू में खड़े रूप लाल को थमाते हैं। रुपये लेकर, रूपलाल जाता हुआ दिखाई देता है। अब मंच पर अंधेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच पर रौशनी फ़ैल जाती है। प्लेटफोर्म नंबर पांच दिखाई देता है, जहां रेलवे की घड़ी सुबह के साढ़े आठ बजने का समय बता रही है। प्लेटफोर्म पर मंगते-फ़क़ीर, इधर उधर खड़े यात्रियों से भीख मांगते दिखाई दे रहे हैं। अब प्लेटफ़ोर्म नबर चार पर जैसलमेर जाने वाली गाड़ी खड़ी दिखाई देती है, यह इस वक़्त संटिंग होकर पानी लेकर आ चुकी है। वेंडरों ने अपने ठेले इस गाड़ी के निकट लाकर, रख दिए हैं। अब वे ग्राहकों को लुभाने वाली आवाजें, लगाते जा रहे हैं। तभी एक उतावली करता हुआ एक जवान यात्री, पटरियां पार करके इस गाड़ी के डब्बे में दाख़िल होता है। फिर बिना देखे वह दरवाज़ा खोलकर सीधा प्लेटफोर्म नंबर चार पर कूदता है। उसी वक़्त एक पुड़ी-सब्जी बेचने वाला वेंडर, अपना ठेला उसी दरवाज़े के पास ले आता है। दरवाज़े के पास ठेला लाते ही, एक खिलका हो जाता है। वह यात्री कूदता है, मगर बीच में ठेला आ जाने से वह सीधा आकर गिरता है ठेले के ऊपर। उसका मुंह सीधा आकर फंस जाता है, आलू की सब्जी से भरी डेकची [पतेली] के अन्दर। गरमा-गरम सब्जी से उसका मुंह जलता है..जो अलग, ऊपर से उस वेंडर के उलाहने और सुनने पड़ते हैं बेचारे को। असल में ताज़ी तैयार की गयी सब्जी, का सत्यानाश हो गया है ? बेचारा वेंडर, आख़िर चुप कैसे रहता ? क्योंकि, सब्जी का हुआ नुकसान नाक़ाबिले बर्दाश्त है। वह उसकी गरदन पकड़कर डेकची से उसका मुंह बाहर निकालता है, फिर उसे सीधा खड़ा करके उसे ज़ोर से फटकारता है]
वेंडर – [उसका गिरेबान पकड़कर, कहता है] – ला, आलू की सब्जी के पैसे। गधे तुझको चलना नहीं आता, नाश कर डाली मेरी पूरी सब्जी।
यात्री – [होंठों में ही कहता है] जला है, मेरा मुंह। इधर मैं करने वाला था, इस लंगूर पर हर्जाने का दावा। उससे पहले यह कुत्तिया का ताऊ, आ गया मुझसे पैसे मांगने ?
[इतने में प्लेटफोर्म पर घुमता एक पुलिस वाला, ठेले के नज़दीक आता है। फिर क्या ? उस यात्री का गिरेबान छुडाकर, उसे अपने क़ब्ज़े में ले लेता है। फिर चालान-डायरी निकालकर, उसे कहता है]
पुलिस वाला – भईसा, ज़िंदगी से धाप गए क्या ? गैर कानूनी कूद-फांद करते, आपको शर्म नहीं आयी ? पटरियां पार करके, इधर क्यों आये ? आया नहीं जाता, उतरीय पुल चढ़कर ? ऐसे क्या आराम तलबी बन गए, आप ? पांव टूटे हुए है, क्या ? अब आप ढाई सौ रुपये भरिये, जुर्माने के। और साथ में, इस बेचारे ग़रीब पुड़ी वाले की हुई हानि की..कीजिये, भरपाई।
[कहां फंस गया, यह भोला प्राणी ? वह बेचारा उस पुलिस वाले को कुछ ज़वाब देता ? उससे पहले प्लेटफोर्म पर, एक खिलका होता दिखाई देता है। उस खिलके को देख, वह बेचारा अपना दुःख भूल जाता है। और उसे, हंसी अलग से छूट जाती है। सामने, मौलवी साहब दिखाई देते हैं। उनके दोनों हाथ पकड़कर, उनकी दोनों बेगमें दोनों तरफ़ से खींच रही है। और इस तरह खींच रही है, जैसे दो टीमें रस्सा-कशी की प्रतियोगिता में रस्सी खींच रही हो ? इन दोनों बेगमों के बीच में, बेचारे मौलवी साहब बुरे फंसे हुए हैं ? उनकी हालत अब, वीणा के कसे जा रहे तारों के समान होती जा रही है। उन्हें ऐसा लगता है, “मानो वे दोनों बेगमें उनके हाथ खींच नहीं रही है, बल्कि हाथ उखाड़ रही है ?” बेचारे मौलवी साहब दर्द के मारे, ज़ोर से चिल्लाते जा रहे हैं। दर्द-भरी आवाज़ में, वे कहते हैं]
मौलवी साहब – [दर्द नाकाबिले बर्दाश्त होते ही, चिल्लाते हुए कहते हैं] – हाय अल्लाह्। मार डाला रे, कढ़ी खाय के। अरी मर्दूद, वह उदघोषक क्या बोलता जा रहा है ? उसकी तरफ़ ध्यान दो, काहे मेरा हाथ तोड़ रही हो कमबख़्त ?
दूसरी बेगम – मियां, काम की बात करो। बस, आप घर चलिए। नहीं जाना है, पीर दुल्लेशाह की मज़ार पे।
एक बेगम – [हाथ खींचती हुई कहती है] – ओ बड़े मियां, तुमको इसी गाड़ी से पीर दुल्ले शाह की मज़ार पर शिरनी चढ़ाने चलना है। तब बाबा मुझे चांद सा लड़का, मेरी गोद में डालेगा।
दूसरी बेगम – [हाथ खींचती हुई, कहती है] – बड़े मियां, एक बार कह दिया आपको..घर चलो। मज़ार पर चलने का, बाबा का हुक्म नहीं हुआ है। छोटी की गोद भरने की, कहां ज़रूरत ? अल्लाह मियाँ ने चार-चार औलादे, मुझे दे रखी है..फिर, उसका क्या अचार डालोगे ? जानते नहीं, कितनी महंगाई है आज़कल ?
[अब बेचारे मौलवी साहब, किधर जाए ? बेचारे मौलवी साहब के हाथ, दोनों तरफ़ से खींचे जा रहे है ? इनकी ऐसी दशा देखकर, वह यात्री अपनी दशा को भूलकर ज़ोर के ठहाके लगाकर हंसता है। अब उस यात्री को पागल आदमी की तरह हंसते देखकर, वह पुड़ी वाला वेंडर पुलिस वाले से कहता है]
वेंडर यह कैसा प्लेटफोर्म है, जनाब ? यहां तो घुमते हैं, मंगते-फ़क़ीर..या फिर, इसके जैसे पागल आदमी। यह पागल आदमी, मेरा हर्जाना कैसे भरेगा ? चलो भाई चलो, यहां रूककर केवल अपना धंधा ख़राब करना है।
पुलिस वाला – तू ठीक कह रहा है, मेरे भाई। यह आदमी वास्तव में पूरा पागल है, यह क्या जुर्माना भरेगा ? इसको ज़्यादा कहा तो, यह आदमी केवल हमारे कपड़े फाड़कर चला जाएगा। ए रामापीर, आज़ किसका मुंह देखा ? अभी-तक, मेरी दोनों जेबें ख़ाली पड़ी है।
वेंडर – सच कहा, जनाब। आपकी जेबें भी ख़ाली, और मेरा भी माल एक पैसे का बिका नहीं। भगवान जाने, अब पूरा दिन कैसे निकलेगा ?
[वेंडर तो आगे बढ़ा, और पुलिस वाले ने अपना मुंह किया मौलवी साहब की तरफ़। उसने सोचा, यहां कुछ नहीं मिला तो शायद वहां कुछ मिल जाए ? वहां बड़ी बेगम मौलवी साहब का रास्ता रोककर आगे खड़ी हो गयी है, फिर वह चिल्लाकर कह रही है]
बड़ी बेगम – [ज़ोर से कहती है] – मियां तुमको, अपने चारों नेकदख्तर की कसम। गाड़ी में चढ़िया तो।
छोटी बेगम – [बड़ी बेगम को धक्का देती हुई, उसे दूर हटाती है] – दूर हटो जीजी, तुमको कह दिया ना..मेरे मामले में दख़ल दिया तो, अल्लाह पाक की कसम मसलकर रख दूंगी तुमको। कह देती हूं, तेरी सात पुश्तों को मेरी बददुआ लगेगी जीजी।
बड़ी बेगम – मुझसे तो तुम, दूर ही रहा करो। देख री छोटी, मियां को हाथ नहीं लगाना। एक बार पहले, कह देती हूं।
छोटी बेगम – [मौलवी साहब का हाथ खींचती हुई, कहती है] – ले यह लगाया हाथ, मियां को। क्या कर लिया है, तूने ?
बड़ी बेगम – [पांव से जूत्ती निकालकर दिखाती है] – अब लगा, हाथ। ऐसी मारूंगी, तूझे तेरी नानी याद आ जायेगी।
[अचानक मौलवी साहब को, पुलिस वाला नज़दीक आता दिखायी देता है। वे उसे देखते ही, अपना हाथ छुड़ाते हुए कहते हैं]
मौलवी साहब – [हाथ छुडाने की कोशिश करते हुए, कहते हैं] – क्या कर रही हो, बेग़म ? वह पुलिस वाला, तुमको देख रहा है...
[मौलवी साहब की बात सुनकर, वह पुलिस वाला उन लोगों के पास आकर कहता है]
पुलिस वाला – [पास आकर कहता है] – देख रहा नहीं, देख लिया है मैंने..जुर्म होते। अब आप लाइए, ढाई सौ रुपये शान्ति भंग करने के। अब कहिये, स्टेशन पर आप लोगों ने शांति भंग क्यों की ? अब भर दीजिये, जुर्माना। नहीं तो तुम लोगों को अन्दर बैठाकर आता हूं, पुलिस की हिरासत में।
बड़ी बेग़म – [आँखे तरेरती हुई, कहती है] – वर्दी पहनकर, क्या आ गया तू ? डरती हूं क्या, तेरे बाप से ? हमको क़ानून बता रहा है, नामाकूल ? पहले गंगलाव तलाब में मुंह धोकर आ जा, फिर पूछ अच्छी तरह से..बड़े मियां को, के मैं कितनी भारी पड़ती हूं ? कुछ बात चढ़ी, तेरे भोगने में ? [पुलिस वाले की तरफ़ खारी-खारी नज़रों से देखती हैं] देख क्या रहा है, टुकर-टुकर ? अब बाका फाड़कर क्या ऊबा है, कमबख़्त ?
पुलिस वाला – क़ानून से खिलवाड़ करना, बहुत महंगा पड़ता है बीबी फातमा।
बड़ी बेग़म – [नाराज़ होकर, कहती है] – अरे ओSS, घास-मंडी की नाली के कीड़े। क़ब्र में जाने की तैयारी करके आया है, क्या ? कमबख़्त, इस गुलशन बीबी को बीबी फातमा कहने की जुर्रत कैसे की रेSS नाशपीटे ?
पुलिस वाला – [थोड़ा विनम्र बनता हुआ कहता है] – इस बात को आप कानों में मत डालिए, गुलशन बेग़मसा। मेहरबानी करके जुर्माना भर दीजिये, आप मुझको मज़बूर न करें कानूनी कार्यवाही..
गुलशन बीबी – [हाथ नचाती हुई, कहती है] – नहीं तो क्या कर लेगा रेSS, अभी क्या बोल रहा है तू ? कौनसा जुर्म हो गया रे, भंगार के खुरपे ? कसम पीर बाबा दुल्लेशाह की, आगे तूने कुछ बोला तो तूझे मुंह देखने लायक नहीं छोडूंगी। [पांव की जूत्ती निकालकर, कहती है] इधर मर कमबख़्त, शरीफ़ औरत को छेड़ रहा है ?
[वह तो गुस्से से काफ़ूर होकर, पाँव से जूत्ती निकालकर अपने हाथ में लेती है। फिर, यह क्या ? गुलशन बीबी के हाथ में पाँव की जूती देखते ही, वह पुलिस वाला सरपट भागता है। मगर वह गुलशन बीबी, कब कम पड़ने वाली ? झट जूत्ती हाथ में लिए, उस पुलिसकर्मी के पीछे कूकरोल मचाती हुई दौड़ती है। अब बेचारे पुलिस वाले में कहां इतनी हिम्मत, बीच में रुकने की ? वह सरपट दौड़ता जा रहा है, दौड़ता-दौड़ता वह आगे देख़ता है न पीछे ? वह बेचारा तो, अपनी जान बचाने के वास्ते तेज़ी से दौड़ता है। बदक़िस्मत से वह रास्ते में टिल्ला खा जाता है, चम्पाकली से। इस हिंजड़े को वहां पाकर, पीछा कर रही गुलशन बेग़म के क़दम स्वत: रुक जाते हैं..और झट, पीछे मुड़कर चली जाती है अपने मियाँ के पास। ऐसा कौन आदमी या औरत होगा, जो हिंजड़े को..अपनी इज्ज़त, धूल में मिलाने का मौक़ा देगा ? इस वक़्त चम्पाकली, शीतल जल के नल से पी रहा था पानी। टिल्ला लगते ही, पानी के छींटे चम्पाकली के मुंह पर लगते हैं..जिससे बेचारे के मुंह का मेक-अप ख़राब हो जाता है। मेक-अप ख़राब हो जाने से, चम्पाकली हो जाता है...नाराज़। उसकी यह हालत देखकर, आस-पास खड़े यात्री हंस पड़ते हैं। फिर क्या ? उसका बदन, गुस्से से कांपने लगता है। अब वह प्लेटफोर्म पर खड़े दूसरे हिज़ड़ों को आवाज़ दे देकर, उन्हें अपने पास बुलाने की कोशिश करता है। अब रास्ते में चारों ओर से, कई हिज़ड़े आते दिखाई देते हैं। इतने सारे हिज़ड़ों को आते देखकर, वह पुलिस वाला घबरा जाता है। और वह सोचता है हिज़ड़ों के आगे किसका चलता है, ज़ोर ?’ बस इज़्ज़त बचाने के लिए, वह तेज़ी से दौड़ता है। और पुलिए के पास आकर, लम्बी सांस लेता है। आज़ तो बेचारा पुलिस वाला, अच्छा फंसा ? बेचारे के हाथ में, आया कुछ नहीं..शगुन भी फोरे हुए ? बिना लिए-दिए नामुरादों ने, इतना दौड़ाकर बे फ़िज़ूल कसरत करवा दी ? इस पुलिस वाले से तो अच्छा है, रेसकोर्स का घोड़ा..जो दौड़कर लाता है इनाम। यह पुलिस वाला ठहरा, करमठोक। अचानक इस पुलिस वाले के ऊपर निग़ाहें गिर जाती है, चार महिला कांस्टेबल की। जो इस वक्त पुलिए की रेलिंग थामे खड़ी है, और उनके मुंह में चबायी जा रही है पान की गिलोरियां। ये महिलाएं ऐसी शैतान है, जो अपने आपको इस महकमें में लेडी डॉन से कम नहीं समझती। यानि ये, हर पुरुष कांस्टेबल पर हावी होना चाहती है। अब इस हांफ रहे पुलिस वाले को देखकर, ये शैतान की खालाएं ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसती है..! फिर उस बेचारे का उपहास करती हुई, उसको व्यंग-भरे जुमले सुनाती जा रही है। वे एक दूसरे से, कहती है..]
एक महिला कांस्टेबल – [पास खड़ी महिला कांस्टेबल से कहती है] – ए राम, तूने अभी कुछ देखा क्या ? फुलिया मुझे तो यह नज़ारा देखकर, बहुत मज़ा आया।
फुलिया – हां ए रामी, इस खोजबलिये खोड़ीले-खाम्पे को अच्छी-खासी शिक्षा मिल गयी है। कल यह बाका फाड़कर कह रहा था, स्टेशन पर, महिला पुलिस की क्या ज़रूरत ? यहां केवल पुरुष पुलिस से ही, काम चलाया जा सकता है। अब देख लिया इसने, औरतों से झगड़े करने का क्या परिणाम होता है ? मर्दों को तो, इन औरतों से दूर ही रहना चाहिए।
रामी – [उस पुलिस वाले की ओर देखती हुई उसे चिढ़ाती हुई जीभ निकालती है, फिर कहती है] – अब और जाना, उस बीबी फातमा के पास।
[रामी के इतना कहते ही, वहां खड़ी सभी महिला कांस्टेबल ज़ोर से हंसती है। इनका हंसना तो आख़िर, यह पुलिस वाला बर्दाश्त कर कर लेता..मगर उनकी लालकी [ज़बान] से छूट रहे व्यंग-बाण नाक़ाबिले बर्दाश्त ठहरे। उन व्यंग बाणों को सहना, उबलते कड़वे तेल को कान में उंडेलने के बराबर है। इस कारण बेचारा वह पुलिस वाला झट सीढ़ियां चढ़कर पहुच जाता है, पुलिए के प्लेटफोर्म के ऊपर। मगर यहां, अलामों के चाचा मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी मौजूद..जो उसे देखकर, खिल-खिल हंसती जा रही है ? अब यहां खड़े रतनजी, ठहरे कुबदी नंबर एक। वे उस पुलिस वाले की ओर देखते हुए, अपने साथियों से ज़ोर-ज़ोर से कह रहे हैं।]
रतनजी – [साथियों से कहते हुए] – देखिये, उस रोवणकाले हवलदार साहब को। [उस पुलिस वाले की तरफ़, उंगली से इशारा करते हुए] चलिए, जनाब का हाल-चाल पूछ लेते हैं।
ओमजी – [ज़ोर से पुलिस वाले को, आवाज़ देकर कहते हैं] – ओ हवलदार साहब, खैरियत है ? पेट की कब्ज़, साफ़ हो गयी या नहीं ? कहीं वापस, पाख़ाने में दाखिल होना है ? अभी-तक आप दौड़ लगाते जा रहे हैं, लगता है अभी-तक आपका पेट साफ़ नहीं हुआ है ?
रतनजी – [ज़ोर से कहते हैं] - पेट साफ़ होने में पूरे दो दिन लगते है, हवलदार साहब। बस अब आप मोहनजी का नाम लेकर, जाजरू [पाख़ाना] का आरक्षण करवा लीजिये। फिर आप किसी और को, जाजरू में जाने मत देना।
[रतनजी की बात सुनकर, सभी साथी ज़ोर-ज़ोर से हंसते हैं। इन लोगों की हंसी की आवाज़ सुनकर, वह पुलिस वाला इनकी तरफ़ देख़ता है। इन लोगों पर नज़र गिरते ही, पुलिस वाला बड़बड़ाता हुआ जी.आर.पी. दफ़्तर की ओर क़दम बढ़ा देता है। इस तरह वह फटा-फट जाने के लिए, पुलिए की सीढ़िया उतरता जा रहा है..और साथ में, बड़ाबड़ाता भी जा रहा है।]
पुलिस वाला – [बड़बड़ाता हुआ, पुलिया उतरता है] – राम, राम। कहाँ फंस गया, यार ? यह तो है, अलाम मोहनजी की अलाम चांडाल-चौकड़ी। अरे रेSS यहां रुकना नहीं, रुक गए तो रामा पीर की कसम..तक़लीफ़ देखनी होगी। कल खाए इनके बनाए हुए दाल के बड़े, इनके कारण बार-बार चक्कर काटने पड़े जाजरू के। अब तो रामसा पीर ही बचायें, इन जिंदे भूतों से।
[बेचारा पुलिस वाला, तेज़ी से क़दम बढ़ाता हुआ जी.आर.पी. दफ़्तर के पास पहुँच जाता है, वहां आकर बेचारा लम्बी सांसे लेता है। अब प्लेटफोर्म नंबर दो पर सीटी देती हुई हावड़ा एक्सप्रेस आती है, कुलियों का झुण्ड पुलिए से उतरता हुआ दिखायी देता है। अब मोहनजी, पुलिया चढ़ते दिखाईं देते हैं। वे इधर-उधर देखते हुए सीधे पहुंच जाते हैं, अपने साथियों के पास।
मोहनजी – रतनजी, कढ़ी खायोड़ा। आप लोग, यहां बैठे हैं ? और मैं गेलसफ़ा बना हुआ, पूरा प्लेटफोर्म देख आया ..?
रतनजी – गाड़ी आये, तब पुल से नीचे उतरना चाहिए। इतनी सी बात, हर समझदार आदमी जानता है।
ओमजी – क्या पागलों सी बात कर रहे हो, रतनजी कढ़ी खायोड़ा ? [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए कहते हैं] ये मोहनजी समझदार आदमी तो नहीं है, मगर ये “महा पुरुष” ज़रूर है।
[मोहनजी बहुत ख़ुश होते हैं, के “आज़ ओमजी ने उनका तकिया कलाम “कढ़ी खायोड़ा” अपना लिया है। अब वे ख़ुश होकर, कहते हैं]
मोहनजी – [ख़ुश होकर, कहते हैं] – आज़ तो मैं ओमजी कढ़ी खायोड़ा, आपकी बहुत तारीफ़ करूंगा। क्योंकि, आपने मेरा तकिया कलाम “कढ़ी खायोड़ा” को अपना लिया है। अब मैं कढ़ी खायोड़ा रामसा पीर से अर्ज़ करता हूं, के ‘ओमजी मेरे पक्के शिष्य बन जाए।’
ओमजी – [मुस्कराकर कहते हैं] मोहनजी, कढ़ी खायोड़ा। बात तो सही है, आप मेरे गुरु हैं..नहीं नहीं..गुरुगंटाल हैं। महापुरुष क्या ? आप तो मालिक, पुरुष भी नहीं हैं।
रशीद भाई - [हंसते हुए, कहते हैं] – सुना साहब, आपके शिष्य ने अभी क्या कहा ? [ओमजी से कहते हैं] यार ओमजी, क्यों धीमे-धीमे बोल रहे हैं ? ज़रा, ज़ोर से कहिये।
मोहनजी – [मुस्कराकर कहते हैं] – सुना नहीं, रशीद भाई ? ओमजी मेरी तारीफ़ कर रहे हैं, के ‘मैं गुरुगंटाल हूं। और मैं महापुरुष भले हूं ही, [कान पर हाथ रखते हुए] आगे, क्या कहा ? अरेSS, यह क्या कह दिया ओमजी कढ़ी खायोड़ा ? मैं पुरुष ही नहीं हूं, तब फिर मैं क्या हूं ? क्या, मैं हिज़डा हूं ?’
ओमजी – जनाब, नाराज़ मत होना। आप जैसे पढ़े-लिखे दानिशमंद व्यक्ति, इस ख़िलक़त में मिलते कहां है ? आपके जैसे ज्ञानीजन ने, कभी महाभारत नाम का महा-ग्रन्थ पढ़ा होगा ?
मोहनजी – हां पढ़ा है रे, कढ़ी खायोड़ा। अब आप आगे कहिये, जनाब।
ओमजी – सुनिए, जनाब। अज्ञातवास में अर्जुन राजा विराट के दरबार में रहा था, बोलो सच कहा या नहीं ? अगर मैं सच्च कह रहा हूं, तब आप कह दीजिये ‘ठीक है।’
मोहनजी – सही फ़रमाया है, ओमजी कढ़ी खायोड़ा। बिल्कुल सही कहा, अर्जुन बड़ा बहादुर था..वह राजा विराट के दरबार में रहा था, अब आगे कहिये ओमजी कढ़ी खायोड़ा।
ओमजी – क्या कहे, जनाब ? उसने राजा विराट की बेटी को, संगीत और नृत्य की शिक्षा दी। अब आप कहिये, जनाब..जो व्यक्ति किसी व्यक्ति को ज्ञान देता है, उस ज्ञान देने वाले व्यक्ति को हम क्या कहेंगे ? उस ज्ञान लेने वाले के साथ, उसका क्या रिश्ता होगा ?
मोहनजी – वह गुरु कहलायेगा, कढ़ी खायोड़ा। इसके अलावा, और उसे क्या कह सकते हैं ? अब आप आगे कहिये, जनाब।
ओमजी – सुनिए, जनाब। अर्जुन बना, उस राज़कुमारी का गुरु..अब कहिये, अर्जुन कैसा था ?
मोहनजी – [परेशान होकर कहते हैं] – अर्जुन कैसा था, अर्जुन कैसा था ? कह कहकर मेरा सर-दर्द बढ़ा दिया, आपने। कह दिया यार, अर्जुन बड़ा अच्छा किरदार था। वैसा ही मैं हूं, कढ़ी खायोड़ा। अब आगे कहो, कढ़ी खायोड़ा।
ओमजी – अर्जुन नाम के किरदार ने हिज़डा बनकर, राज़कुमारी को संगीत और नृत्य की शिक्षा दी। अब आप कहिये, क्या हिज़डा ख़राब होता है ? अगर आपको हिज़डा बना दिया, तो कौनसा ग़लत काम किया ? अर्जुन वृहन्नलता नाम का हिज़डा बना, तब आप कहिये ‘क्या उसने, कोई खोटा काम किया ?’
मोहनजी – नहीं रे, कढ़ी खायोड़ा। कोई खोटा काम नहीं किया, वह तो महापुरुष था..पुरुष नहीं था।
रशीद भाई – मोहनजी ठीक है, सही बात कही ना ओमजी ने ? आप सहमत हो ? आप वैसे ही महापुरुष हैं या नहीं, जैसा अर्जुन था ?
मोहनजी - हां भाई, इसमें ग़लत बात क्या कही ? अर्जुन महापुरुष था, मगर पुरुष नहीं था, बस मैं भी वैसा ही हूं कढ़ी खायोड़ा। बस, यह बात बिल्कुल शत प्रतिशत सही है। मैं भी अर्जुन की तरह, तुम लोगों को तालीम दिया करता हूं..
[सभी उनकी बात सुनकर, ज़ोर से ठहाके लगाकर हंसते हैं। मोहनजी बेचारे बांगे आदमी की तरह, उन लोगों के मुंह ताकते रह जाते हैं।]
मोहनजी – [सभी को कहते हैं] – सही कहा, ओमजी ने..फिर तुम गधेड़ो कढ़ी खायोड़ो, क्यों बेफिजूल हंसते हो मुझ पर ? पागलो जैसे हंसना, क्या यह समझदार इंसानों का काम है ?
रतनजी – [मुस्कराते हुए कहते हैं] – मोहनजी। क्या आपने मंज़ूर कर लिया, अब आपको किसी तरह की प्रोब्लम तो नहीं है ?
[मोहनजी के कुछ नहीं बोलने पर, अब रतनजी दूसरे साथियों की तरफ़ मुंह करते हुए कहते हैं]
रतनजी – [दूसरे साथियों से कहते हुए] – क्यों हंसते जा रहे हो, पागलों की तरह ? अब कढ़ी खायोड़ा...
[अब इंजन की सीटी सुनायी देती है, उसके आगे आगे रतनजी क्या कह रहे हैं..कुछ सुनायी नहीं देता। अहमदाबाद-मेहसाना जाने वाली लोकल गाड़ी प्लेटफोर्म नंबर पांच पर आकर रुकती है। अब सभी सीढ़ियां उतरकर, प्लेटफोर्म नंबर पांच पर आते हैं। मंच पर अंधेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच पर वापस रौशनी फ़ैल जाती है। अब गाड़ी के शयनान डब्बे में, मोहनजी खिड़की के पास वाली सीट पर बिराज़ जाते हैं। और उनके पहलू वाली सीटों पर, रतनजी और ओमजी बिराज़ जाते हैं। रशीद भाई भी सामने वाली सीट पर, बिराज़ गए हैं। पास वाली फोल्डिंग टेबल को खोलकर, मोहनजी खाने का टिफ़िन उस पर रख देते हैं। अब आदत से लाचार मोहनजी, खिड़की से मुंह बाहर निकालकर ज़र्दे की पीक थूकते हैं...और वह पीक सीधी जाकर गिरती है, मौलवी साहब की छोटी बेग़म के रिदके [दुपट्टे] के ऊपर। जो खिड़की के पास ही खड़ी रहकर, अपने शौहर को पीर बाबा दुल्लेशाह की मज़ार पर चलने के लिए रजामंद कर रही है। रिदके पर पीक गिरते ही, वह ज़ोर से चिल्लाती हुई मोहनजी से कहती है।]
छोटी बेग़म – [ज़ोर से चिल्लाती हुई, कहती है] – अरेSS, ओ नापाक दोज़ख़ के कीड़े। क्या कर डाला रे तूने, मेरे ओढ़ने का ? कमबख़्त, नापाक कर डाला रेSS ? क्या यह तेरे बाप का, पीकदान है ? [मौलवी साहब से कहती है] बड़े मियां, अब कैसे जाऊंगी पीर बाबा की मजार पर ? इन नापाक कपड़ो में बाबा की मज़ार पर जाना, शरियत के ख़िलाफ़ है।
बड़ी बेग़म गुलशन बीबी – [ख़ुश होकर कहती है] – हर किसी से ख़ता हो जाती है, ग़लती आख़िर इंसानों से ही होती है। सुन, कभी बुरा नहीं जाना किसी को अपने सिवा, हर ज़र्रे को हम आफ़्ताब समझे हैं अब समझा, तूने ? इस नामाकूल को माफ़ करना ही अच्छा है, छोटी।
छोटी बेग़म – कैसे माफ़ कर दूं, जीजी ? इसने जान-बूझकर मेरी ओढ़नी नापाक की है, अब इस ओढ़नी को पहने जा नहीं सकती। अब ऐसे ही, इस नामाकूल को ऐसे कैसे छोड़ दूं ? [मुंह बिगाड़कर, कहती है] वाह, जीजी वाह। क्या कह दिया, तुमने ? अब तुम बड़ी फकीरणी बनकर कह रही हो, कर दूं इसे माफ़ ? यह कमबख़्त, क्या लगता है तुम्हारा ?
बड़ी बेगम गुलशन बीबी – ख़ुदा के हुक्म को मान, छोटी। ख़ुदा ने कहा है, सच्चे दिल से इंसान की ख़ता को माफ़ करना चाहिए, इससे जन्नत-ए-दर नसीब होता है। तू अच्छी तरह जानती है...अब तो ओढ़नी पाक होने से रही, अब तू घर चल। अगले जुम्मेरात ज़रूर चलेंगे, बाबा की मज़ार पर।
मौलवी साहब – सच्ची बात कही है, तेरी जीजी ने। ले चल, अब घर चलें।
[तीनों जाने के लिए अपने क़दम बढ़ाते हैं, तभी खिड़की से मुंह बाहर निकालकर..मोहनजी झट, अपनी कैंची की तरह चलती ज़बान को चला देते हैं]
मोहनजी – [खिड़की से मुंह बाहर निकालकर, मोहनजी कहते हैं] – मैंने जान-बूझकर नहीं थूका है, जैसे आप काळी राण्ड की तरह लाल-पीली हो रही हैं ?
[इतना सुनते ही, छोटी बेग़म झट रूककर, सिंहनी की तरह ग़रज़ती हुई मोहनजी को धमकाती है]
छोटी बेग़म – [ग़रज़ती हुई, पांव से चप्पल निकालकर कहती है] – इधर मर, बकर ईद के बकरे। अभी तूझे हलाल करती हूं। [बड़ी बेग़म से कहती है] जीजी, तेरे को मज़ा आ रहा है ? अब देख ले, इस नामुराद के लक्खन..अभी भी चुप नहीं बैठा है, यह घास मंडी की नाली का कीड़ा। चल मेरे साथ, उसको पीटते हैं। इस नामुराद की अक्ल, ठिकाने आ जायेगी। [चप्पल पहन लेती है]
[मगर अब यहां खड़े रहकर, तमाशा तो करना नहीं, बस..? झट छोटी बेग़म का हाथ पकड़कर मौलवी साहब और बड़ी बेगम गुलशन बीबी, उसे घसीटते हुए पुलिए की तरफ़ ले जाते हैं। थोड़ी देर बाद, वे तीनों पुलिए की सीढ़ियां चढते नज़र आते हैं। यह मंज़र देख रहे रतनजी अपने बाएं हाथ की मुट्ठी दबाकर, उससे दायें हाथ की हथेली पर ज़ोर से फटकारा लगाते हैं। इस तरह वे पम्प मारने का इशारा करते हुए, नचाते जाते हैं अपनी अंगुलियां। रशीद भाई इनके इशारे को समझकर, अपना मूड-ओफ कर देते हैं। फिर इनकी तरफ़ से ध्यान हटाते हुए, वे खिड़की के बाहर झांकने लगते हैं। उधर मोहनजी ने अपना टिफ़िन खोल दिया है, और वे रोटी का एक-एक निवाला तोड़कर कढ़ी की सब्जी में डूबा-डूबाकर खाना खा रहे हैं। रोटी खाते-खाते वे रतनजी से कहते हैं]
मोहनजी – [खाना खाते हुए, कहते हैं] – क्यों मज़ाक कर रहे हो, रतनजी ? रशीद भाई जैसे सेवाभावी, इस ख़िलक़त में मिलने मुश्किल है। आपके द्वारा इतना खिजाने के बाद भी, आपके लिए देख रहे हैं बाहर..
रतनजी – मगर, क्यों देख रहे है जनाब ?
मोहनजी – अरे यार, यह देखने के लिए...कहीं जम्मू-तवी, लेट आयी हुई कहीं दिखाई दे जाय ? तब अपुन सब उस गाड़ी में बैठकर, पाली जल्दी पहुंच जाए।
रतनजी – [हंसते हुए कहते हैं] – साहब..ये जनाब ऐसे हैं, जो आपको जम्मू-तवी के स्थान पर दिल्ली एक्सप्रेस में बैठा देंगे। और आप रोटी खाते वक़्त देखोगे नहीं, गाड़ी किधर जा रही है ?
ओमजी – और फिर आप लोगे, आराम से नींद। फिर आपका क्या कहना, जनाब ? खारची की जगह, ये सेवाभावी आपको पहुंचा देंगे दिल्ली। ऐसे है ये आपके, सेवाभावी।
[गाड़ी रवाना हो जाती है, अब रशीद भाई बाहर झांकना बंद कर चुके हैं। और इधर ओमजी ख़ाली सीट पर आराम से लेट गए हैं, और इन्होने अपना बैग सिर के नीचे रखकर उसे तकिया बना डाला है। अब वे आराम से नींद ले रहे हैं, और इनके खर्राटे गूंजते जा रहे हैं। अब गाड़ी की रफ़्तार बढ़ती जा रही है। मंच पर अंधेरा छा जाता है, थोड़ी देर बाद मंच पर रौशनी फैलती है। गाड़ी पटरियों के ऊपर तेज़ी से दौड़ रही है। ओमजी के खर्राटों की आवाज़, और पछीत पर सो रहे छंगाणी साहब के खर्राटों की आवाज़..दोनों आपस में, तालमेल बैठा रही है। इधर गाड़ी की छुक-छुक की आवाज़, इन दोनों के खर्राटों से..बराबर संगत करती जा रही है। मोहनजी ने अब खाना खा लिया है, वे अब टिफ़िन को बंद कर रहे हैं..टिफ़िन को बंद करते हुए वे रतनजी से कहते हैं]
मोहनजी – रतनजी, बात आपकी मार्के की है। आपकी बात मानने वाले को फ़ायदा होता है, [खिड़की से हाथ बाहर निकालकर, हाथ धोते हैं] इस पर नहीं चलने से जनाब, हम एम.एस.टी. वाले कई तक़लीफ़ें देखते आये हैं।
रतनजी – जनाब, आप यों ही मुझे राई के पर्वत मत मत चढ़ाइए, आप साफ़-साफ़ ही कह दीजिये..आपका कहने का, क्या मफ़हूम है ?
मोहनजी – [टिफ़िन को, बैग में रखते हुए कहते हैं] – आपका मत है, सबसे पहले तहकीकात कर लीजिये, के ‘गाड़ी किस प्लेटफोर्म पर आ रही है ?’ इस तरह पूछ-पूछकर ही गाड़ी में बैठना चाहिए, नहीं तो अगर दूसरी गाड़ी में बैठ गए तो तक़लीफ़ देखना हमारा नसीब बन जाएगा। फिर यदि ज़ेब में पैसे नहीं हुए, तो रामा पीर जाने टी.टी.ई. के सामने हमारी क्या गत बनेगी ?
रशीद भाई – इन बातों को सुनकर ऐसा लगता है, आप कभी किसी ग़लत गाड़ी में बैठने का तुजुर्बा ले चुके हैं।
मोहनजी – हां रेSS, रशीद भाई कढ़ी खायोड़ा। जिस बेचारे के साथ ऐसी घटना घटित होती है, उस बेचारे का दिल ही जानता है। पांच दिन पहले की बात है, मैं और मेरे साथी हमेशा की तरह पहुंचे खारची स्टेशन पर गाड़ी पकड़ने। सामने खड़ी गाड़ी को हमने समझ लिया, वह गाड़ी बीकानेर-बांद्रा टर्मिनल होगी ?
रतनजी – फिर क्या हुआ, जनाब ?
मोहनजी – हमने आव देखा ना ताव, झट चढ़ गये उस गाड़ी में। अरे कढ़ी खायोड़ो, आपको क्या कहूं ? किसी से न पूछा..न किसी से मालुम किया, के ‘गाड़ी कहां जा रही है ?’
रशीद भाई – फिर, क्या ? खाना-वाना खाया, और खूंटी तानकर सो गए ?
मोहनजी – यही काम किया रेSS, कढ़ी खायोड़ा। फिर करता, क्या ? क़रीब आधा घंटा बिताया होगा, तभी गाड़ी रुकी..और, लगा ज़ोर का धक्का। इस धक्के से मेरी नींद खुल गयी, मैंने सोचा..के..पाली स्टेशन आ गया होगा ? अच्छा हुआ, बाहर जाकर पानी की बोतल भरकर ले आयें।
रतनजी – अच्छा होता रामा पीर, रशीद भाई आपके साथ होते तो यह तक़लीफ़ आपको करनी नहीं पड़ती।
रशीद भाई – [खीजे हुए कहते हैं] – ख़ुदा रहम। मुझे क्यों बैठा रहे हैं, ग़लत गाड़ी में ? मैंने आपका, क्या बिगाड़ा ?
मोहनजी – क्यों बीच में बोलकर मेरी लय तोड़ रहे हैं, आप ? अब सुनिए, कढ़ी खायोड़ा। जैसे ही मैंने खिड़की के बाहर झांका, मुझे तो यह स्टेशन कोई दूसरा ही स्टेशन लगा। मेरी तो सांसे ऊपर चढ़ गयी, बेटी के बापां। अब क्या करूं, रामा पीर ?
रतनजी – सांसे ऊंची चढ़ गयी..? कहीं, आपका हार्ट फेल तो नहीं हो गया ?
मोहनजी – कढ़ी खायोड़ा, आप मुझे क्यों मौत दिखला रहे हैं ? सुनो, मैंने पास बैठे यात्री से पूछा, के “पाली स्टेशन आ गया, क्या ?” वह गधा सुनकर ऐसे हंसा, जैसे कोई काबुल का गधा हंस रहा हो ढेंचू ढेंचू करता हुआ ?
रतनजी – [हंसते हुए कहते हैं] – अरे रेSS, मालकां। अभी आप अपनी बिरादरी वालों की बात मत सुनाइये, अभी आप यह बताइयेगा..आगे, क्या हुआ ? कहीं आप दिल्ली तो ना पहुंच गए, चांदनी चौक में ?
मोहनजी – अरे जनाब रतनजी वह तो यों बोला, के “पाली जाना है तो आप अभी गाड़ी से उतर जाइएगा, नहीं उतरे तो आप सीधे दिल्ली पहुंच जाओगे। अरे जनाब यह पाली स्टेशन नहीं, यह है सेन्दड़ा स्टेशन।”
रतनजी – अरे जनाब, मोहनजी। आप अकेले इस चक्कर में फंस गये, या आपने अपने साथियों को भी फंसा डाला ? मुझे तो उस बेचारे भोले पंछी महेश की फ़िक्र है, वह आपके ज़ाल में ज़रूर फंसा होगा ? उसको बहुत अधिक शौक है, आपका साथ करने का।
मोहनजी – क्या यार रतनजी, ऐसे बोल रहे हैं आप ? मैं कोई अकेला नहीं चलता गाड़ी में, मगर यहां बात कुछ अलग ही है, आप सुनो तो सही..कढ़ी खायोड़ा। यह आपका भोला पंछी महेश ही, इस गाड़ी में बैठने की उतावली कर रहा था।
रतनजी – [आश्चर्य से कहते हैं] – क्या कह दिया आपने, महेश उतावली कर रहा था गाड़ी में बैठने की ?
मोहनजी – कह रहा था ‘चढ़ जाओ, चढ़ जाओ गाड़ी में..’ कहता-कहता, मुझे परेशान कर डाला, के ‘चढ़ जाओ गाड़ी में, नहीं तो गाड़ी रवाना हो जायेगी।’
रशीद भाई – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – अब आप यह कहिये, नीचे उतर गए अच्छी तरह से..या फिर चलती गाड़ी से उतरकर, ज़मीन पर खाए रगड़के ? और साथ में उस बेचारे महेश को भी लेकर, नीचे पड़े होंगे ?
मोहनजी – अरे जनाब, मेरे हाथ के तोते उड़ गए। मैं देखने लगा, आसमान। मुंह से ये शब्द निकलते रहे के “ओ मेरे रामसा पीर, अब क्या करूं ? जोधपुर जाने वाली, बीकानेर बांद्रा टर्मिनल चली गयी तो..?” मगर रखी मैंने हिम्मत, आपके जैसे रतनजी..कोई मैंने, हाम्फू-हाम्फू नहीं किया ?
रतनजी – [हंसते हुए कहते हैं] – अब आराम से बैठकर, कर लेना हाम्फू-हाम्फू। यहां आपको, मना करने वाला कोई नहीं। कहिये, आगे क्या हुआ ?
मोहनजी – बस रामसा पीर ने हमारी गाड़ी चलायी, कहीं पैदल चले तो कहीं जीप में बैठे..अरे भाई, कहीं हमें बैल गाड़ी में तो कहीं टेक्टर में भी बैठना पड़ा। बेटी के बाप, किसी तरह हम सोजत पहुच गए। वहां हमने पकड़ी, सीधी पाली जाने की बस। पाली पहुंचते ही मेरे साथी चले गए अपने घर। और मैं टेम्पो पकड़कर, सीधा आया रेलवे स्टेशन।
रशीद भाई – गाड़ी मिल गयी, या आपको स्टेशन पर मंगतों-फकीरों के साथ सोना पड़ा ?
मोहनजी – बाबा रामसा पीर की कृपा से मिल गयी, जम्मू-तवी एक्सप्रेस। मगर वह भी, तीन घंटे लेट। जब मैं जोधपुर स्टेशन पर पहुंचा, तब घड़ी में बजे थे रात के बारह।
रतनजी – अरे रामसा पीर, यह क्या कर डाला आपने ? वो वक़्त तो भूतों के घुमने का था..
मोहनजी – मैं ख़ुद ज़िंदा कालिया भूत हूं, मैं किसी से डरने वाला पूत नहीं हूं..जनाब, मैं ख़ुद लोगों को डरा दिया करता हूं। पहले सुनो, आगे क्या हुआ ? ज़ेब के अन्दर केवल दो-तीन रुपये, इस वक़्त सारे टेम्पो और सिटी बसें चलनी बंद हो गयी। फिर हिम्मत रखकर, पैदल रवाना हुआ..
रतनजी – ठीक है, जनाब। कहीं रास्ते के बीच आपने, रात्रिकालीन गश्ती पुलिस वालों के डंडे ज़रूर खाए होंगे ? या फिर आपने लगाई होगी मेराथन दौड़, भौंकते कुत्तो के साथ ? क्या कहूं, आपको ? बाबा रामसा पीर के दर्शनार्थ आप रामदेवरा जाने की, आप कभी नहीं करते पद-यात्रा। अच्छा हुआ, जनाब..बाबा की कृपा से, यहीं आपकी हो गयी पद-यात्रा।
[दोनों हंसते हैं]
मोहनजी – क्या आप, जानते नहीं ? बीच रास्ते, मेरा तो टूट गया चप्पल अलग से। आप काहे हंसते जा रहे हैं, काबुल के गधों की तरह ? सुनिए, फिर क्या ? चप्पल को हाथ में लिए, पैदल-पैदल घर पहुंचा।
रशीद भाई – ऐसी रोज़ के तक़लीफ़ों के स्थान पर, साहब आपकी बदली जोधपुर हो जाए..तो कितना अच्छा ? बड़े अफ़सरों की झाड़ से भी आप बचे रहेंगे, और भाभीजी भी ख़ुश हो जायेगी..अलग से।
मोहनजी रशीद भाई, कढ़ी खायोड़ा। मत याद दिलावो, इन बड़े अफ़सरों की। वानरी को बिच्छु काट जाय, जैसी बात करते हैं आप ? आप तो यार, तुली सिलागाने की बात करते जा रहे हैं। आपकी बातों से, मुझे याद आती है...जोधपुर कार्यकाल के, लांगड़ी साहब की..वे सारी बातें।
रतनजी – ऐसी क्या बात हो सकती है, जो हम लोगों को मालुम नहीं है ? लांगड़ी साहब तो बहुत सीधे अधिकारी रहे हैं...
मोहनजी – [बात काटते हुए, कहते हैं] – जनाब, क्या आपने परसों का अख़बार देखा ? बेचारे लांगड़ी साहब की सेवानिवृति में घटता था, केवल एक दिन..! किस्मत ने ऐसा पल्टा खाया यार, उनको मिलना चाहिए था सेवानिवृति का आदेश। मगर मिल गया उनको, टर्मीनेशन का आदेश।
रशीद भाई – [बरबस, कह उठते हैं] – यह कैसे हो सकता है, जनाब ?
मोहनजी – कैसे नहीं, हो सकता ? जैसा करेंगे, वैसा भरेंगे। नौकरी में उन्होंने दोस्त कम बनाए, और दुश्मन बनाए ज़्यादा। कोई जांच का मामला था, बेचारे साहब की लम्बी नौकरी पर खींच दी गयी लाल लाइन।
रतनजी – फिर आप क्यों होते हैं, ख़ुश ?
मोहनजी – क्या फ़र्क पड़ता है, मुझे ? रतनजी कढ़ी खायोड़ा मैं क्यों होऊंगा, ख़ुश या नाख़ुश ? कहिये, आप। मुझे क्या मिलता है, ऐसा करने से ? मैं तो मेरे हाल में मस्त रहता हूं, यह सभी लोग जानते हैं..के, मोहनजी एक ईमानदार अफ़सर हैं..कामचोर नहीं है। फिर कोई उनको छेड़ता है, वह आदमी तक़लीफ़ ही पाता है। जैसा करोगे, वैसा ही भरोगे।
रशीद भाई – क्यों जनाब, फिर आप में ऐसी क्या ख़ासियत है ?
मोहनजी – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] सुनिए, जनाब। मोहन लाल ओटाळ है, ओटाळ ही नहीं ओटाळो का सरदार है। तभी आप सबको, लोग किस नाम से पुकारते हैं ? लोग कहते हैं लीजिये देखिये, वो आ रही है मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी।”
[मोहनजी की बात सुनकर, सभी ठहाके लगाकर ज़ोर से हंसते हैं। इनके ज़ोर-ज़ोर से खिल-खिल हंसने से बर्थ पर लेटे छंगाणी साहब सोचते हैं, ‘शायद वे सभी उन पर ही हंसते जा रहे हैं ?’ बेचारे छंगाणी साहब, दुखी होकर कहते हैं]
छंगाणी साहब – बेटी के बापां, मुझे क्यों उठा रहे हैं..आप ? आप लोगों में किसी को बर्थ पर सोना था, तो पहले आप बोल देते मुझे।
रतनजी – [हंसते हुए कहते हैं] आपकी तरह सोते ही रहेंगे, तो ज़रुर हम लोग खारची पहुंच जायेंगे..मगर, हमें वहां जाना नहीं। अब उठकर आ जाइये नीचे, पाली स्टेशन आने वाला ही है।
[यहां चल रही गुफ़्तगू के कारण मालुम नहीं पड़ा, के ‘बीच के सारे स्टेशन निकल चुके हैं।’ अब इंजन ज़ोर से सीटी देता है, पाली स्टेशन आता हुआ दिखायी देता है। प्लेटफोर्म नंबर एक पर आकर गाड़ी रुकती है, मोहनजी के साथी, नीचे प्लेटफोर्म पर उतरते हैं। स्टेशन के नज़दीक आयी हुई “राज़कीय माध्यमिक विद्यालय, मिल क्षेत्र पाली” में बच्चों की प्रार्थना हो चुकी है, अब उन्हें कक्षाओं में भेजने के लिए ड्रम बज रहा है। बच्चे क़दम मिलाते हुए अपनी कक्षाओं की तरफ़ जाते दिखाई दे रहे हैं। उनके शारीरिक शिक्षक की आवाज़ लाउडस्पीकर पर गूंज रही है, के “लेफ्ट राईट लेफ्ट, लेफ्ट राईट लेफ्ट..!” इधर खिड़की के पास बैठे मोहनजी, अपने साथियों को क़दम मिलाकर चलते देख रहे हैं। उधर स्कूल के लाउडस्पीकर से, आवाज़ बराबर सुनायी दे रही है “लेफ्ट राईट लेफ्ट, लेफ्ट राईट लेफ्ट..” मोहनजी हाथ हिलाते है, ऐसा लगता है “वे अपनी चांडाल-चौकड़ी की, सलामी ले रहे हैं।” उनकी गैंग हाथ हिलाकर पांव घसीटती हुई ऐसे चल रही है, मानो उनकी चांडाल-चौकड़ी अपने सरदार को सलामी देती हुई गुज़र रही है ? यह मंज़र भाऊ की केंटीन के पास खड़े जस करणजी देख रहे हैं, वे अपने पास खड़े भाना रामसा को सुनाते हुए बोल रहे हैं]
जस करणजी – “लेफ्ट राईट लेफ्ट, लेफ्ट राईट लेफ्ट..!”
भाना रामसा – क्या बात है रे, जस करण ? अभी-तक अफ़ीम का नशा, उतरा नहीं क्या ?
जस करणजी – [मोहनजी और उनकी चांडाल-चौकड़ी की तरफ़, उंगली का इशारा करते हुए कहते हैं] – इधर देखिये, उस्ताद। इनको देखकर, आपका भी नशा हवा बनकर उड़ जाएगा।
[भाना रामसा, उधर क्या देखते हैं ? बस उन लोगों को, देखते ही वे ठहाके लगाकर ज़ोर से हंसते हैं। फिर किसी तरह, अपनी हंसी दबाकर वे कहते हैं]
भाना रामसा – [हंसी दबाकर कहते हैं] – वाहSS मोहनजी, वाह। गज़ब की सलामी ले रहे हैं, जनाब। [उनकी चांडाल-चौकड़ी को देखते हुए, कहते हैं] अरे अब चली, सलामी देती हुई मोहनजी की चांडाल-चौकड़ी

[थोड़ी देर बाद, इंजन सीटी देता है। गाड़ी प्लेटफोर्म छोड़कर आगे बढ़ जाती है, मंच पर अंधेरा छा जाता है।]

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: [मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। खंड 13 - लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
[मारवाड़ का हिंदी नाटक] यह चांडाल चौकड़ी, बड़ी अलाम है। खंड 13 - लेखक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
https://drive.google.com/uc?id=1smpP2XSZO-nSoQq0O5yEPym1MXXbLTzZ
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2019/12/yah-chandal-chaukdi-bdi-alam-hai-13.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2019/12/yah-chandal-chaukdi-bdi-alam-hai-13.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content